सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्यप्रदेश में विपक्ष में बैठी हुई कांग्रेस मैदानी स्तर पर इतनी शून्य क्यों है समझ में नहीं आ रहा। 2023 में होने वाले विधानसभा निर्वाचनों के लिए क्या कांग्रेस इतनी तैयार है कि उसे भारतीय जनता पार्टी की संभावित चुनौती को छेड़ने के लिए कोई तैयारी ही नहीं करनी पड़े। ग्रामीण स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक सिवा बैठकों के और सोशल मीडिया पर बयान जारी करने के प्रदेश कांग्रेस के पास कोई काम ही नहीं रह गया है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी में लगातार सम्पर्क में रहने वालें लोगों का कहना है कि टेबिलों में जमी धूल यह बता देती है कि कितने हफ़्तों से किसी भी पदाधिकारी ने प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में प्रवेश ही नहीं किया है। समय-समय पर ये अफ़वायें उड़ती रहती है कि प्रदेश स्तर पर कांग्रेस का पुनर्गठन होने जा रहा है। चंद दिनों तक हवाओं में रहने के बाद यह संभावना भी अफ़वाह साबित होती है। पिछले दिनों कुछ जिला स्तर से मिली हुई सुचनाएँ यह स्पष्ट करती है कि कांग्रेस का कोई भी संगठन राज्य में सक्रिय नहीं है। कभी-कभार होने वाले आंदोलन या बैठकों के अलावा कांग्रेस का अस्तित्व सिर्फ कागज़ी रह गया है। बड़े नेताओं के बंगलें में लगने वाली भीड़ नदारत है। चंद समर्थकों और सलाहकारों के भरोसे प्रदेश के शीर्ष नेता पूरे राज्य में राजनीति की नई इबारत लिखने की कोशिश कर रहे है।
संभवतः कांग्रेस को यह भ्रम है कि आवश्यकता पड़ने पर उचित समय में प्रबंधन की राजनीति के भरोसे सब कुछ खरीद कर करीने से प्रदेश कार्यालय को सजा लिया जायेगा, और सपने बाट कर राज्य में फिर से सत्ता पर कब्ज़ा जमाया जा सकता है। कांग्रेस यह भूल चुकी है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी उसका स्वरुप छोटा हो गया है। भविष्य में होने वालं पाँच राज्यों के चुनाव में केवल गोवा में संभावनाओं को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस सत्ता के करीब नहीं पहुँच रही, ऐसा अनुमान राजनीति के जानकारों ने लगाया है। इन स्थितियों में पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों की प्रतिक्षा में कांग्रेस को बनाने का स्पप्न देखने वाला नेताओं का समुह और कांग्रेस का विद्वंस करने का देखने वाला नेताओं का समुह चुपचाप बैठकर समय कर इंतजार कर रहा है।
कांग्रेस के वर्तमान वरिष्ठ नेताओं को यह भ्रम है कि समय गुजरने के साथ अपने वंशजों को वे कमजोर कांग्रेस का लीडर बना सकेंगे तो इसे कोरी कल्पना मानना चाहिए। गुजरते समय के साथ मध्यप्रदेश में कार्यकर्ता लुप्त होता जा रहा है, प्रदेश के कठित स्थापित नेता भाजपा के स्थानीय प्रभावशाली नेताओं के साथ गठबंधन कर दलाली करने में व्यस्त है। कांग्रेस में यदि कोई उपेक्षित है और जिसकी दल को जरूरत भी नहीं है वह कार्यकर्ता ही है। इन स्थितियों में कार्यकर्ताओं का बड़ा समूह छोटे-छोटे दलाली कार्यक्रमों में सफलतापूर्वक शामिल होकर अपने जीवन यापन की व्यवस्था कर रहा है।
मध्यप्रदेश संभवतः उन राज्यों में से है जहां देश में सब कुछ लूटने के बाद भी कांग्रेस अगले चुनाव में बेहतर कर पाने की उम्मीद कर सकती है। उसे सत्ता मिलेगी या नहीं ये उन वरिष्ठ नेताओं की नियत पर निर्भर करता है, जो वर्तमान में छोटी या बड़ी दलाली का सुख भाजपा के नेताओं के साथ मिल कर भोग रहे है। जिलों में बैठे हुए सामान्य कार्यकर्ता की स्थिति यह है कि यदि भाजपा प्रलोभन के साथ एक अभियान चला दे तो भारत में तो वो कांग्रेस मुक्त राजानीति की कल्पना वो साकार नहीं कर सकी है पर मध्यप्रदेश में जरूर कर लेगी। पाँच राज्यों के चुनाव के बाद परिणामों पर एक और राजनीति दांव पर लगी हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की और भी कांग्रेस के एक बड़े वर्ग के नेताओं का ध्यान जा चुका है। यदि कांग्रेस की हालत अगले विधानसभा चुनाव में बिगड़ी रहती है तो चुनाव के पूर्व ही कांग्रेस के अंदर परिवर्तन की एक आँधी चलेगी, जिसका परिणाम चुनाव के नतीजे स्वयं स्पष्ट कर देंगे। परंतु वर्तमान में काग्रेस का प्रादेशिक नेतृत्व और चंद वरिष्ठ नेता इस संभावना के प्रति पूरी तरह लापरवाह है।