(Advisornews.in)

सुधीर पाण्डे
भोपाल (एडवाइजर):
मध्यप्रदेश के प्रजातांत्रित इतिहास में विधानसभा की भूमिका बहुत अर्थो में अब समाप्त हो चुकी है। केवल बजट अनुमोदन या अनुपूरक बजट को स्वीकृत करने की औपचारिकता के लिये विधानसभा की बैठकों को कभी बजट सत्र, कभी मानसून सत्र के नाम पर आमंत्रित किया जाता है। इस बार के मानसून के सत्र में यह उम्मीद थी कि सरकार और विपक्ष आम व्यक्ति से हितों से जुडे हुये कई मामलों का नये नियम विधान या योजनाओं को आपसी चर्चा से पारित करना चाहेंगे। जिनका व्यापक प्रभाव आम आदमी के जीवन पर पड़ सकें।
वर्तमान विधानसभा सत्र प्रारंभ होंने के साथ पोषण आहार कार्यक्रम में सामने आई अनियमित्ता, आदिवासियों के प्रति प्रशासन के लापरवाहीपूर्ण रवैये सहित राज्य की कानून व्यवस्था बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं पर विस्तार से चर्चा की उम्मीद की गई थी। परंतु ऐसा हुआ नहीं, सत्ता पक्ष और विपक्ष एकजुट होकर पोषण आहार के घोटाले को जल्द से जल्द निपटाकर विधानसभा को अनिश्चितकाल के लिये स्थगित करने पर आमादा दिखे। 
वैसे भी संसदीय इतिहास में विधानसभा या सदन जनहित कार्यो, योजनाओं, कानून और नियमों के निर्माण के लिये एक आदर्श स्थान माना जाता है। जहां सत्ता पक्ष आम व्यक्ति की जरूरतों को ध्यान में रखकर तथ्यों को प्रस्तावित करता है, और विपक्ष प्रस्तुत किये गये तथ्यों में कमजोरियों को निकाल कर एक मजबूत और जनहिनकारी नया परिवेश बनाने की पहल करता है। 
विधानसभा में तो बैठकों के दौरान टीका-टिप्पणी और आरोप-प्रत्यारोप होते हैं, परंतु वातावरण हमेशा एक स्वस्थ लोकतांत्रिक बहस का होता है। एक युग वह भी था जब मध्यप्रदेश विधानसभा की बजट संबंधी कार्यवाही को देखने के लिये प्रदेशभर के जानेमाने अर्थशास्त्री विधानसभा की दर्शक दीर्घा में बैठे पाये जाते थे। सदन के अंदर चलने वाले बहस सदन के बाहर चलने वाली बहस के महत्वपूर्ण बिन्दुओं को अपने आप में समाहित करती थी। सदन की कार्यवाही में भाग लेते हुये हर मंत्री अपनी योग्यता का पूरा परिचय पूरे ज्ञान के साथ देना चाहता था। इसके लिये उसे यदि घंटो का समय विधानसभा की लाइब्रेरी में बिताना पडे तो भी वह संकोच नहीं करता था।
विधानसभा की दुर्गति ऐसी हो गई है कि विद्वानों को छोड़ दीजिये आम आदमी वहां होने वाली किसी भी बहस को गंभीरता से नहीं लेता। न सत्ता पक्ष के पास अब वह राजनैतिक विवेक व इच्छाशक्ति है कि वह विधानसभा की गरिमा को कायम रख सकें नाही विपक्ष के पास अब स्व. सुंदरलाल पटवा जैसे मुखर वक्ता है। जो अपनी धारदार बहस के जरिये किसी भी राज्य सरकार के परखच्चे उड़ा सकें। सदन के नये आने वाले विधायकों में अब रमाशंकर सिंह जैसे विधायकों को खोज पान असंभव है। 
इस सब की व्यर्थ की बहस में पड़ने की बजाये मध्यप्रदेश की आम व्यक्ति को अब मान लेना चाहिए कि राज्य में एक विधानसभा है। जिसमें कुछ चुने हुये जनप्रतिनिधी अपनी सुविधाओं के विस्तार के लिये आपसी सम्पर्क को मजबूत करने के लिये कुछ दिनों के लिये बुलाये जाते हैं और सत्ताधारी दल और विपक्ष मिल कर हर बहस के लिये समय और उसके परिणाम को पूर्व में ही निर्धारित कर लेता है। ताकि सदन में व्यर्थ का समय बर्बाद न किया जाय क्योकि घोटाले और विवादास्पद विषयों पर निर्णय तो सदन प्रारंभ होने के पूर्व इस नाटकीय अंदाज में सत्ता पक्ष और विपक्ष तय कर लेता है कि बहस के दौरान सबकी भूमिकाएं, कथन, रोमांचक भी लगे आम व्यक्ति को जिम्मवारी पूर्ण भी लगी और दोनों ही पक्षों के स्वार्थ को पूरा कर सके। विधानसभा की यह परम्परा एक साथ नहीं बिगडी, पिछले तीन दशकों से बिगाड का यह सिलसिला जारी है, जो अब अपने शिखर पर पहुंच चुका है। कुल मिलाकर सूचना यही है कि पोषण आहार घोटाले की गम्भीरता को नकार दिया गया है और सत्ता पक्ष और विपक्ष ने इस घोटाले पर कोई ध्यान न देने का मन बनाते हुये मानसून सत्र को ढाई दिन में लपेटकर खूंटे पर टांग दिया है।