(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव को लेकर, राजनैतिक दलों की चल रही तैयारियों का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मैदानी सच्चाइयों को दर किनार कर एक विशिष्ट शैली और दिशा में अति आत्मविश्वास के साथ अपने-अपने दलों को ले जाना चाहते हैं। भाजपा में इस बात का अभिमान है कि 20 सालों तक सत्ता में रहने के बाद उसने वह व्यापक अनुभव प्राप्त कर लिया है, जिसमें कुछ नेताओं की सोच और निर्धारित की गई दिशा दल के कार्यकर्ताओं के लिये एक स्थायी लाइन बन सकती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ज़मीन की आवाज़ को सुने बिना और उससे मिल रहे संकेतों को अनदेखा करके भाजपा चुनाव प्रक्रिया की एक योजना बना रहीं है। इसके बावजूद यह दिखाने की लगातार कोशिश की जा रही है कि नाराज़ कार्यकर्ताओं, स्थानीय नेताओं और उनके विचारों को चुनाव अभियान के दौरान व्यापक प्राथमिकता देने में भाजपा, कांग्रेस से कहीं आगे है। 
दूसरी ओर प्रमुख और एक मात्र विपक्षी दल कांग्रेस ने भी प्रदेश अध्यक्ष के निवास पर बैठकों का सिलसिला निरंतर बढ़ा दिया है। इन बैठकों में अब उन नेताओं को भी आमंत्रित किया जाने लगा है जो अभी तक अपने ही क्षेत्रों में संगठन द्वारा उपेक्षित माने जाते थे। संभवतः कांग्रेस भी यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि आयातित रणनीतिकार के भरोसे से नहीं उसकी व्यूह रचना सभी नेताओं को एक साथ लेकर तैयार की जा रही है। इन बैठकों में भाग लेने वाले कई नेताओं का मत है कि बैठक प्रारंभ होते ही यह तय हो जाता है कि प्रस्तुत किये जाने वाले विषय में अंतिम निर्णय क्या होना है ऐसा लगता है कि योजना उसका क्रियान्वयन और संभवित निष्कर्ष बैठक के पूर्व ही निर्धारित हो जाते है। जहां तक स्थानीय नेताओं की प्रचार प्रक्रिया में संक्रिय भागीदारी का प्रश्न है, कांग्रेस अभी भी शंका में पड़ी हुई है। ऐसा लगता है कि प्रदेश नेतृत्व पार्टी के नेताओं पर पूर्ण विश्वास नहीं कर पा रहा है और राज्य भर से मिल रही सर्वेक्षणों की जानकारियां उसकी इस मान्यता को अधिक मजबूत कर रही है कि अंत में इन चुनाव का परिणाम कांग्रेस के पक्ष में ही जाना है। इन स्थितियों में जब परिणामों के प्रति पार्टी नेतृत्व अश्वस्त है उसका श्रेय दोयम दर्जे के नेताओं के हिस्से में प्रचार-प्रसार को क्रियान्वित करने में उनकी सहभागिता सुनिश्चित कर क्यों दिया जाएगा।
कांग्रेस और भाजपा में एक तथ्य एक रूप है कि दोनों ही दलों के प्रादेशिक शीर्ष नेता आने वाले चुनाव में विजय के श्रेय को अपने आसपास रखना चाहते है। यदि दोनों में से जो भी दल जीतता है, जिन्दाबाद के नारे उस दल के एक विशिष्ट नेता के लिये ही लगने है। यह बात अलग है कि ज़मीनी स्तर पर भाजपा इतने लम्बें शासन काल के दुष्परिणामों को यदि भोगने जा रही है तो कांग्रेस के सामने भी कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता से लेकर परस्पर अविश्वास का एक वातावरण निर्मित है। इन स्थितियों में दोनों दलों में से कोई भी अपनी मैदानी गतिविधियों के दम पर यह दावा नहीं कर सकता कि परिणाम उसके ही पक्ष में होंगे। 
यांत्रिक व्यवस्था से किये जा रहे सर्वेक्षणों में भाजपा, कांग्रेस से कहीं पीछे है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कांग्रेस आने वाली विधानसभा में सरकार बनाने की 100 प्रतिशत गारंटी रखती है। संशय के इस वातावरण में बैठकों का सिलसिला हर स्तर पर जारी है। यह बात अलग है कि कांग्रेस की सभी प्रमुख बैठके पार्टी कार्यालय से अलग प्रदेश अध्यक्ष निवास पर एक सुरक्षित वातावरण में हो रही है। जबकि भाजपा पार्टी कार्यालय को गतिविधियों को मुख्य केन्द्र बना बैठी है। यह भी तय है कि दोनों दलों की बैठकों में उन राजनैतिक गुप्तचरों और ख़बरियों की निगाहे हमेशा लगी रहती है, जो स्वतंत्र रूप से अपनी निष्ठा किसी दल विशेष के प्रति रखते है।