(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
 आगामी विधानसभा में मध्यप्रदेश की राजनीति एक नए राजनैतिक प्रयोगशाला बनेगी। कांग्रेस का दांवा है कि कार्यकर्ताओं के सारे असंतोष के बाद भी और बड़े नेताओं के मध्य खींच-तान की खबरों के बाद भी अगली सरकार उसकी ही होगी, और मध्यप्रदेश में विकास का छिन्दवाड़ा मॉडल कमलनाथ के नेतृत्व में प्रभावी होगा। दूसरी ओर भाजपा भी कॉर्पोरेट कल्चर के सहारे अगले चुनाव की रूपरेखा प्रभावी ढंग से  बनाने की दिशा में बड़ रही है। फर्क इतना है कि भाजपा का कॉर्पोरेट राजनीतिक कल्चर औद्योगिक घरानों के भरोसे खड़ा हो रहा है। जिसमें आम व्यक्ति की भागीदारी को हर कदम पर सुनिश्चित किया जा रहा है। दूसरी ओर कांग्रेस के विकास मॉडल में जनसहयोग के स्थान पर तकनीकी योजनाकारों की भूमिका कहीं अधिक है। यह बात अलग है कि कांग्रेस की ज़मीनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये मध्यप्रदेश के कांग्रेसी चाणक्य दिग्विजय सिंह लगभग 66 पूर्व में पराजित विधानसभा क्षेत्रों में एक नया नेटवर्क खड़ाकर सक्रिय कार्यकताओं की टीम बनाने का दांवा कर रहें हैं।
कांग्रेस और भाजपा के मध्य होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई, विकास एवं प्रशिक्षण की अवधारणा क्या मध्यप्रदेश को रोज़गार के अवसर प्रदान कर पायेगी। यदि छिंदवाडा के प्रयोगों को देखा जाएं तो इस तथ्य को सही माना जा सकता है। लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिये उन्हें चिकित्सा एवं रोज़गार में मदद करने के लिये छिन्दवाड़ा का कमलनाथ का मॉडल  इस जिले में सफल रहा है। इसी मॉडल को मध्यप्रदेश के विकास का आधार मान लेना सत्य प्रतित नहीं होता। मध्यप्रदेश में हर 100 किमी पर भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खानपान और विचार बदल जाते हैं। आस्थाएं परिवर्तित हो जाती हैं और जातिगत, धर्मगत विभिन्नताएं प्रभावी या अप्रभावी हो जाती है। कुल मिलाकर केवल मध्यप्रदेश समूचे भारत के एक छोटे प्रतिबिम्ब की तरह है।
भाजपा, अपनी हर घोषणा या प्रयोग को क्रियान्वयन के पूर्व ही जनआंदोलन में बदल लेती है। उसके कार्यकर्ता से लेकर बड़े नेता तक यह जनविश्वास पैदा कर देते  हैं कि होने वाली घोषणा के बाद एक नई सामाजिक स्थिरता पैदा होगी, और यहीं जनविश्वास भाजपा के पक्ष में एक हवा का निर्माण करता है। 
जिस शैली में राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर केन्द्र से आने वाले नेताओं तक, जनता के मध्य उठते-बैठते और आचार-व्यवहार करते  हैं उसमें एक अपनापन होता है। कांग्रेस अपनेपन की इस परिभाषा को समझ पाने में अक्षम है। छिन्दवाड़ा मॉडल के भरोसे या चाणक्य बुद्धि द्वारा पैदा की गई काल्पनिक मजबूती के संकेतों पर कांग्रेस के विजय का घमण्ड काल्पनिक रूप में जन्म लेता है। भाजपा अपने क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं और नेताओं को उनके असंतुष्ट होने के बाद भी घर से मनाकर वापस कर्मक्षेत्र में ले आती है। वहीं कांग्रेस से मानसिक रूप से अलग हुआ कार्यकर्ता या नेता प्रादेशिक नेतृत्व या सक्षम प्रादेशिक नेताओं द्यसास इतना उपेक्षित कर दिया जाता है कि उसके लिये एक मात्र माध्यम निष्क्रिय होना या पाला बदलना ही शेष रह जाता है।
कांग्रेस के विकास मॉडल में कागज़ों में दर्ज करने के लिये बहुत कुछ है। परंतु उसकी व्यवहारिक सफलता और अपने प्रयासों को जनआंदोलन बनाने के क्षमता नहीं के बराबर है। उदाहरण के रूप में देखें तो कितने किसानों का कर्च 15 महीनों में माफ किया गया, कितने युवाओं को 15 माह की सरकार के दौरान रोजगार देने की योजना सफलतापूर्वक बनाई गई या क्रियान्वित की गई, इसका आकड़ा प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के पास एक पेन ड्राइव में आज तक सुरक्षित है। जिसकी सत्यता का कोई प्रमाण आजतक खुले मैदान में नहीं मिल पाया है। परिणामतः प्राप्त की गई उपलब्धि केवल कागज़ी रह जाती है और कांग्रेस उसका लाभ भी नहीं ले पाती। एक अन्य तथ्य उल्लेखनीय है कि भाजपा, चतुर और चालाक रणनीतिकारों को एक साथ जोड़कर दूरगामी परिणाम देने वाले कार्यक्रमों को सफल घोषित करती है। वहीं कांग्रेस बेहतर पोशाक पहनकर बेहतर तरीके से बैठकों में आचरण करने वाले उन नेताओं को प्राथमिकता देती है जो आम जनता के मध्य याकि चुक गये हैं या उनका अस्तित्व राजनीति क्षेत्र में कूटनीतिक चालों के लिये कोई महत्व नहीं रखता। छिन्दवाड़ा मॉडल पूरे राज्य के लिये कारगर हो सकता है यह सोच कांग्रेस की एक विशिष्ठ लोबी का विचार है। वास्तव में कांग्रेस को मध्यप्रदेश में अब एक लम्बा सफ़र तय करना है, जहां वातानुकुलित कमरों से कार्पोरेट शैली में राजनीति करने वालों से अलग हटकर मैदान की राजनीति की जाएं।