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सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्यप्रदेश के आने वाले विधानसभा चुनाव में, क्या कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी पक्ष और विपक्ष के तौर पर मैदान में उतर रही है। या समझौतावादी राजनीति के तहत आपसी समझ-बूझ से चुनावी क्षेत्रों का बंटवारा एक रणनीति के तहत किया जा रहा है। दोनों ही दलों की राजनैतिक गतिविधियों को यदि बारीकी से देखा जाएं तो यह आभास होता है कि आपसी टीका-टिप्पणी और आरोप-प्रत्यारोपों के अलावा राजनैतिक गंभीरता कहीं नहीं है। भाजपा 20 सालों से सत्ता में होंने के बाद भी अपने उन पुरातन आदर्शो से बहूत दूर है जो उसे संघ समर्पित प्रदर्शित करते थें। दूसरी ओर कांग्रेस अनमने भाव से इन चुनावों की तैयारियों में अपने आप को व्यस्त रख रही है। राजनीति की परिभाषा में वे महत्वपूर्ण बिन्दु जो चुनाव के कुछ महीनों पूर्व विजय के संकेतों के रूप में सामने आते थे, इस बार नज़र नहीं आ रहें हैं। हल्के-फुल्के बयानों के और सरकारी योजनाओं की घोषणाओं के भरोसे, मध्यप्रदेश के मतदाता को असमंजस की स्थिति में रखा जा रहा है। 
भाजपा की ओर देखें तो नई सड़कों के निर्माण से लेकर सरकारी योजनाओं की नई घोषणाएं पार्टी स्तर पर विभिन्न प्रकोष्ठों, संगठनों की बैठकों का सिलसिला निरन्तर जारी है। इसी दम पर भाजपा यह दावा कर रही है कि पंचायत स्तर तक उसने एक मजबूत नेटवर्क स्थापित कर लिया है। परंतु 20 साल तक सत्ता में रहने के उपरांत किसी भी राजनैतिक दल को जिन आरोपों का सामना करना पड़ता है उसका जवाब भाजपा के पास नहीं है। भाजपा का एक सबसे बड़ा संकट कांग्रेस से पलायन करके 45 माह पूर्व सरकार में शामिल हुए। सिंधिया समर्थक कांग्रेसी नेतओ का है, जिन्होंने 45 माह की अवधि में इतनी आर्थिक मजबूत हासिल कर ली है जितना संभवतः 50 वर्ष संघ और भाजपा के साथ काम करने वाला कार्यकर्ता सोच भी नहीं सकता है। इस समूह की संवादहीनता भाजपा के नियमित नेताओं के साथ लगातार बनी हुई है। जिससे दल के अंदर एक असंतोष का वातावरण लगातार बना हुआ है।
दूसरी ओर, 15 महीनों की कांग्रेस सरकार को गिराने के बाद सिंधिया समर्थकों के लिये उपेक्षित कर दिये गये, भाजपा के नेता अपने अस्तित्व को शून्य नहीं मान रहे है। 20 वर्षो के दौरान भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं के मध्य श्रेणियों का विभाजन हो गया है। दल भले ही दावा करें सब एक है, पर यह विभाजन देखा। चुनाव के करीब आते-आते अलगाव में बदल रही है, दल का एक ओर बडा संकट एक ही चेहरे का 20 साल तक लगातार मुख्यमंत्री बने रहना भी है। 
दूसरी ओर, कांग्रेस प्रदेशव्यापी आंदोलन के दौरान 5 हजार की भीड़ तक विरोध के रूप में जोड़ पाने में अक्षम रही। दूसरी ओर संगठन के द्वारा राज्य में कांग्रेस की पूर्व में हारी हुई सीटों को संगठित करने का दायित्व एक विवादास्पद नेता के हाथ में सौप दिया गया। जो स्वयं स्वीकार कर चुका है कि वो जिस विधानसभा में प्रचार के लिये जाता है वो कांग्रेस हार जाती है। कांग्रेस में टिकटों के लिये मण्डी लगने की सम्भावना बहुत ज्यादा है। कांग्रेस के नेताओं को एक बार टिकट हासिल करके उसके सौदेबाजी का जो सुख भविष्य  में मिलने वाला है, उससे कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग उत्साहित है। राजनीति को जानने वाले आगामी चुनाव में बिना किसी बड़े परिवर्तन के कांग्रेस की विजय को स्वीकार नहीं कर पा रहें है, जबकि मैदानी स्थितियां और जनाक्रोश बहुत हदतक कांग्रेस के पक्ष में है। किन्तु कांग्रेस राजनीति करना नहीं चाहती और कांग्रेस हाई कमान इस राज्य के प्रति हमेशा की तरह सौतेले रूप में कायम है। हाई कमान केवल यहां विजय चाहता है, वो कैसे मिलेगी इसका निर्णय उसने स्थानीय नेताओं के भरोसे छोड़ दिया है। दोनों ही दलों के पास कूटनीति योजना और कार्यकर्ताओ की सक्रियता का नितांत अभाव है। इस स्थितियों में असमंजस में पड़ा हुआ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग किसके पक्ष में करेगा यह समझ पाना असंभव है।