(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल (एडवाजर):-
राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की राजनैतिक गतिविधियों में कुछ विचलन नजर आ रहा है। हिमाचल, गुजरात और दिल्ली नगर निगम के चुनाव एक साथ होने के बावजूद, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के इर्द-गिर्द बैठे हुये नेतागण कुछ असहज महसूस कर रहें हैं। भाजपा जैसी विशाल पार्टी का नियंत्रण पूरी तरह नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के पास है। यह स्पष्ट संकेत है कि पार्टी का कोई भी अन्य नेता पार्टी की गतिविधियों या उसे राजनैतिक दिशा दे पाने में बिना मोदी-शाह के सक्षम है।
वास्तव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो अपनी छवि में एक अंतरराष्ट्रीय विस्तार किया है, उसका प्रभाव बालात रूप से ही सही पूरी पार्टी में नजर आता है। सरकार और संगठन इतने आपस में गूथ गये हैं कि सरकार की नीतियों और पार्टी के मार्ग दर्शन सिद्धांतों को अलग-अलग समझ पाना या कर पाना असंभव हो गया है। भाजपा अपने इसी स्परूप में वर्ष 2024 के चुनाव तक जाना चाहती है, जहां पार्टी के पास एक मात्र चेहरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का होगा। फिर चाहे वो नगर निगम, नगर पालिका का चुनाव हो या देश की संसद का। संभवतः देश में आज तक इतना बड़ा राजनैतिक रिस्क किसी पार्टी ने कभी नहीं लिया है।
जिस पार्टी को भाजपा परिवार की पार्टी बताती है उसके सबसे प्रभावशील कालखंड में पंडित जवाहरलाल नेहरू या स्व. इंदिरा गांधी भी इस स्तर का इतना बड़ा राजनैतिक दावं खेलने के लिये तैयार नहीं थे। पार्टी को सरकार से अलग करके और पार्टी में विभिन्न दायित्वों के जिम्मेवारी पूर्ण निर्वाहन के लिये सशक्त व्यक्तियों को अधिकार दिये जाने की परम्परा रही है।
स्वयं भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी युग में भी कार्यो के विभाजन और जिम्मेवारियों के निर्वाहन के लिये चुने हुये लोगों को चयनित किया जाता था। फिर चाहे मनोमय के साथ ही जिम्मेवारी का वितरण हो वितरण किया जाता था। उपरोक्त वर्णित परिस्थितियों में भी पार्टी कभी एक व्यक्ति या एक प्रांत के प्रभावशील दो लोगों तक कभी सिमित नहीं रही। पिछले दिनों महाराष्ट्र से उद्योगों का गुजरात में पलायन का आरोप केवल इसी कारण से है कि वर्तमान भाजपा की दिशा केवल एक राज्य की विकास तक सिमित हो के रह गई है। अब पार्टी यह दावां भी करती है कि वो समूचे भारत को एक नजर से देखती है तो कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं।
आने वाले दिनों में होने वाले गुजरात और हिमाचल के विधानसभा चुनाव में स्थितियां पूर्णतः भाजपा के पक्ष में नहीं कही जा सकती। भाजपा को उपरोक्त दोनों ही राज्यों में नये राजनैतिक समीकरण की खोज करनी पड़ रही है, साथ ही आश्वासनों का इतना बड़ा पिटारा खोलना पड़ रहा है जैसा अभी तक संभव नहीं होता था। 
इन दो लड़ाईयों के अतिरिक्त भाजपा की प्रतिष्ठा दिल्ली महा नगर निगम के चुनाव पर भी दावं पर लगी है। तीन बार से लगातार दिल्ली में विजय हासिल करके आम आदमी पार्टी दिल्ली राज्य में अपने शक्तियों के विकास के लिये इस नगर निगम के चुनाव को गंभीरता से लड़ेगी। गुजरात और दिल्ली नगर निगम के चुनाव में मुख्य मुकाबला भी भाजपा और आम आदमी पार्टी के मध्य है। इसलिये आम आदमी पार्टी के विरूद्ध विभिन्न माध्यमों से किये जा रहे षड़यंत्रों को राजनैतिक माना जा रहा है। केंद्रीय एजेंसियों के जोर पर भाजपा जितना आम आदमी पार्टी को दबाव में रखने के लिये जोर लगायेगी उतना ही नुकसान उसे आम मतदाताओं के मध्य वैचारिक उथल-पुथल के रूप में मिलेगा। भाजपा ने सभी स्थानों पर सर्वेक्षण के माध्यम से स्वयं को विजयी मान लिया है, परंतु वैचारिक उथल-पुथल के इस दौर में वोटिंग मशीन के सामने खड़े हुये मतदाता की मनन स्थिति को परिवर्तित होते हुये अभी भाजपा महसूस नहीं कर पा रही है। वास्ताव में यह समय एक धैर्यपूर्ण राजनैतिक बिसात बिछाने का है ना कि आक्रमण शैली में विरोधियों पर हमला करने का, भाजपा जो निर्णय लेगी वह प्रधानमंत्री का होगा। निर्वाचनों में मिलने वाली विजय भी प्रधानमंत्री के नाम पर ही लेगी उसमें भाजपा के किसी अन्य सदस्य का सहयोगी के रूप में उल्लेखित होना अनिवार्य नहीं होगा। संघर्ष की यह रूप-रेखा एक नये भारतीय लोकतंत्र को परिभाषित कर रही है जिसके परिणाम भारतीय राजनीति में दूर तक नजर आयेंगे।