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सुधीर पांडेय

भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश के सत्ताधारी दल ने एक अजीब तरह की लड़ाई चल रही है। एक ओर भाजपा सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड के भाजपा में आये, नेताओं को भविष्य के लिये उनके अस्तित्व की सुरक्षा का वचन देने में घबरा रही है। वहीं दूसरी ओर दल के सामान्य कार्यकर्ता से लेकर संभागीय स्तर तक के कार्यकर्ता और पदाधिकारी अपने भविष्य को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं। चिंताओं का यह स्पष्ट विभाजन एक ओर ज्यातिरादित्य सिंधिया जैसे विस्थापित नेताओं को कदम-कदम पर भाजपा में झुकने को बाध्य कर रहा है। वहीं यह संकट सामने आकर खड़ा हो रहा है कि भाजपा की प्रदेश नीति की कमान घुसपैठियों के हाथ में होगी या वर्षो तक संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता के हाथ में। 
15 माह तक कांग्रेस की सरकार ने सत्ता सुख भोग कर रातोरात ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ पलायक कर भाजपा में घुसपैठ करने वाले नेताओं ने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं संघ के स्थापित मूल्यों को खंड-खंड कर दिया है। पिछले उप चुनाव की बात ओर थी जब, कांग्रेस छोड़कर भाजपा को मजबूत बनाने आये नेताओं का भाजपा के हर छोटे बड़े नेता ने खुले दिल से स्वागत किया और इस विद्रोही समूह को 28 विधानसभा क्षेत्रों में स्थापित स्वयं के कार्यकर्ताओं और नेताओं को दर किनार कर पुनः विधायक और फिर मंत्री बनने का रास्ता दिखाया। 
सत्ता में आने के बाद बाहर से आये हुये इन नेताओं का तारम्तय भाजपा के कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं के साथ शायद पूरी तरह नहीं बैठ पाया। कल तक कांग्रेस की तिरंगे की आड में पलने वाले ये नेता लम्बे समय के बाद भी भाजपा के भगवे रंग में पूरी तरह रंग गये। इसका न कोई प्रमाण मिलता है और नाही भाजपा कार्यकर्ताओं की ओर संतुति। परिणाम यह है कि यदि इन 28 लोगों को निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में पुनः भाजपा की टिकिट पर पुरानी प्राथमिकता के आधार पर टिकिट दे दिया गया, तो इन क्षेत्रों का कार्यकर्ता क्या इन्हें भगवाधारी मानकर खुल कर इनका समर्थन कर सकेगा, और यदि समर्थन न हुआ तो क्या इन नेताओं ने स्वयं की छवि को इतना मजबूत बना लिया है कि वे अपने स्वयं की जीत को सुनिश्चित कर सकें। 
ज्योतिरादित्य सिंधिया इस समूह के नेता थे, नेता है, उन्हें इस बात की चिंता स्वाभाविक रूप से होनी चाहिए कि गुना की जिस लोकसभा सीट पर उनके पूर्व कर्मचारी एवं सहयोगी ने उन्हें धूल चटा दी थी क्या आज वहीं व्यक्ति उनके लिये इस सीट को छोडे़गा और जीत के लिये सहयोग भी करेगा।
इन स्थितियों से निपटने के लिये ही संभवतः इंदौर के अपने पुराने प्रतिद्वंद्धी कैलाश विजयवर्गीय के घर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने न सिर्फ एक परिवार की तरह प्रवेश किया, बल्कि सिंधिया राजघराने की समस्त परम्पराओं को ताक में रखकर अपने पुत्र को कैलाश विजयवर्गीय से आर्शिवाद भी दिलवा दिया। तो यह माना जाना चाहिये कि सिंधिया अब गुना, ग्वालियर से पलायन कर होल्कर राज्य की सीमाओं पर कूटनीतिक चालों के माध्यम से कब्जा करना चाहते है। 
इतिहास गवाह है, सिंधिया और होल्कर दोनों ही बाजीराव पेशवा के द्वारा क्रमशः ग्वालियर और इंदौर के प्रहरी नियुक्त किये गये थें। दोनों राज्यों की सीमाएं अलग थीं और उनका कार्य बाजीराव पेशवा के राष्ट्रीय मिशन के लिये आवश्यक ताकत इकट्ठा करना और अपने-अपने क्षेत्रों की व्यापक सुरक्षा करना था। सिंधिया राज घराने के कभी भी न होल्कर पर हमला किया और ना ही कभी होल्कर ने ग्वालियर राज्य की सीमाओं का अतिक्रमण। 
आधुनिक राजनीति में राजवाडों के अस्तित्व के समाप्त होने के बाद भी राज्यों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति बनी हुई है। यदि सिंधिया ग्वालियर से कूच करके कैलाश विजयवर्गीय के माध्यम से इंदौर क्षेत्र में सिंधिया घराने का परचम लहराते है तो इसे बाजीराव पेशवा द्वारा निर्धारित किये गये मापदंडों के सैद्धांतिक रूप से विपरित माना जायेगा। इसके बावजूद वर्तमान युग में सीमा विस्ताव की यह राजनैतिक प्रक्रिया अब लड़ाई के मैदान से नहीं कूटनीति के मैदान से जीती जायेगी। इस युद्ध में गुना से विजयी सांसद या इंदौर में प्रभावी कैलाश विजयवर्गीय का अस्तित्व मात्र मोहरों की तरह होगा। क्योकि बाजीराव पेशवा के युग में इन दोनों ही परिवारों का कोई अस्तित्व नहीं था, संघर्ष की यह बैचेनी भाजपा में निरन्तर जारी है, जिससे निपट पाना पार्टी के लिये मुश्किल होगा।