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सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
राष्ट्रीय राजनीति में कहीं कोई परिवर्तन जरूर आ रहा है, अब तक जो चीजें सामान्य तौर पर होती हुई नजर आती थी, वे भी लगभग कठिन सी महसूस होने लगी है। दिन प्रतिदिन एक बैचेनी सा आभास राष्ट्रीय राजनीति में बड़ता जा रहा है। कहने को सब कुछ ठीक है, पर एक केंद्रीय सरकार के द्वारा चलाये जाने वाले राजनैतिक या प्रशासनिक कदमों पर अब सत्ताधारी दल के अंदर से ही कुछ सुगबुगाहट होने लगी है। नागपुर के अलग-अलग कार्यक्रमों में केंद्रीय मंत्री नीतिन गडकरी के द्वारा किये जा रहे कुछ रहस्य उद्घाटन और उनकी बदलती हुई भाषा शैली ने इस उमस भरे वातावरण को ओर बैचेन कर दिया है। राष्ट्रीय राजनीति के अन्य शीर्ष पुरूष भी कुछ कहना चाहते है, पर किसी अज्ञात का भय अभी उन्हें ऐसा करने से लगातार रोक रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो बाड़े में बंधे हुये पशु अब अपनी खूटियों को उखाड़ने के लिये दम लगाते हुये प्रतित होने लगे है। 
ऐसा कुछ एहसास राजधानी दिल्ली को ही नहीं समूचे देश को हो रहा है। इन बिगड़ती हुई स्थितियों को नियंत्रण में करने के लिये किसी प्रयोग के सामने न आने के कारण माहौल संजीदा हो चला है। यह सारा घटना क्रम तब ओर गंभीर हो जाता है जब कई राज्यों में आपरेशन लोटस के माध्यम से रातोरात सत्ता हस्तांतरित करने वाला राजनैतिक दल झारखंड, बिहार और दिल्ली में अचानक असफल हो जाता है। इतना ही नहीं कई महीनों से किये जा रहे इस सफल षडयंत्र का पर्दाफाश भी हो जाता है, और पिछले महीनों में किये गये विभाजन के कई कार्यो और कारणों का क्रमशः खुलासा भी होने लगता है।
ऐसा संभवतः इसलिये भी हो रहा है कि देश में भाजपा की सत्ता निर्माण के लिये दान दाताओं के रूप में सामने आये हुये दो बिजनेसमैन अपने धंधे की रेल पटरी को छोड़ कर सीधे-सीधे राजनीति में अपने हस्तक्षेप का मार्ग न सिर्फ तय करते हैं, बल्कि अन्य दलों में उपस्थित राजनेता रूपी अपने एजेटों को संक्रीय करके सत्ताधारी गुट के लिये एक धनात्माक माहौल का निर्माण करने में संलग्न हो जाते हैं। इसके लिये वे देश के एक मात्र बचे हुये समाचार टीवी चैनल को चोर दरवाजे से करोड़ों रूपये खर्च कर अपने कब्जे में लेने का प्रयास करते है। उन्हें विश्वास होता है कि इस खरीदी के बाद देश के पूरा मीडिया उद्योगपतियों के इशारें पर पूरे देश को भ्रमित करने के लिये तैयार है।
इन सभी घटनाक्रमों का खुलासा क्रम से होता जा रहा है, बैचेनी का माहौल इसीलिये है कि सत्ताधारी दल में विघटन की प्रक्रिया समझते हुये भी आम मतदाता नये नेतृत्व के प्रति कहीं से भी अश्वसत् नहीं है। विपक्ष का बिखराव एक नई शून्यता को जन्म दे रहा है और सत्ताधारी दर पिछले कुछ वर्षो में की गई अपनी गलतियों को संशोधित कर पुनः नया षंडयत्र का जाल फेकने की कोशिश कर रहा है।
क्या इस देश में इन परिस्थितियों में कोई एक ऐसा चेहरा ढूढ़ने से भी मिल सकता है जिसे दिखाकर देश के आम मतदाता को आकर्षित किया जा सके। बदली हुई परिस्थितियों में महसूस तो यह होता है कि वर्ष 2024 आते-आते राज्यों में बिखरी हुई छोटी-छोटी शक्तियां अपने क्षेत्रीय अस्तित्व को अधिक मजबूत करते हुये एक राष्ट्रीय विकल्प तैयार करने की कोशिश कर सकते है। आम चुनाव के दो वर्ष पूर्व विभिन्न गोदी मीडिया के माध्यम से किये जा रहे सर्वेक्षण यह प्रमाणित कर रहे है कि देश की राजनैतिक स्थिति में वांछित सुधार आ रहा है। इतना ही नहीं वर्तमान नेतृत्व के प्रति जनता की आस्था भी कुछ प्रतिशत ही सही बढती दिखाई पडती है, परंतु क्या यह सच हो सकता है। आज जब मंहगाई बेरोजगारी और आम जनमानस से जुडे हुये कुछ मामले प्रतिदिन अपना आकार बढ़ा करते जा रहे है। लोकप्रियता का यह सर्वेक्षण सौ प्रतिशत प्रयोजित नजर आता है। संभवः इस तथ्य को राजनीतिज्ञ समझ रहे है, तभी पूरे देश में एक उमस और बैचेनी का माहोल गर्माता जा रहा है।