क्या म.प्र. में भाजपा - आदिवासी नेतृत्व चुनेगी
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश सरकार ने बड़े राजनैतिक उलटफेर की संभावना के साथ, एक नये युद्ध की शुरूआत हुई है। मध्यप्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव भाजपा केवल इसलिये हार गई थी, कि उसे आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक जन समर्थन नहीं मिला था। वर्तमान में पिछले दिनों हुये प्रशासनिक क्रियाकलापों ने एक बार पुनः स्पष्ट कर दिया है कि, अनु. जनजाति का वोट और विश्वास प्राप्त कर पाने में भाजपा सही अर्थों में अभी तक राज्य में सफल नहीं हो सकी है। राजनैतिक रूप से सबसे बड़ा घटनाक्रम, राज्य के 18 साल पुराने मुख्यमंत्री को राष्ट्रीय कार्य समिति से बाहर करने के निर्णय को लेकर प्रारंभ हुआ है।
राजनैतिक क्षेत्रों में यह माना जा रहा है कि अखिल भारतीय स्तर पर, भाजपा संगठन को यह स्पष्ट हो चुका है कि 18 साल पुराने चेहरे को निरन्तर रखकर वो मध्यप्रदेश राज्य में बहुत कुछ हासिल नहीं कर पायेगी। इसी क्रम में समीक्षा का अलग-अलग दौर भाजपा हाई कमान को यह भी स्पष्ट इशारा कर रहा है कि, राज्य की प्रशासनिक एवं राजनैतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार में डूबे होने के कारण लगभग समाप्त हो चुकी है।
इन स्थितियों में जब भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को झारखंड और बिहार में हुये राजनैतिक षडयंत्र में मुह की खानी पड़ी है। तब भाजपा के लिये मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य महत्पूर्ण हो जाता है। इन्हीं स्थितियों में वास्तिविक आकलन के लिये भाजपा में एक ओर परिवर्तन का दौर जारी है। वहीं अमित शाह जैसे राष्ट्रीय नेता जमीनी सच्चाई का मूल्यांकन करने के लिये दो दिन के राजधनी प्रवास पर बने रहें।
यह तय है कि भाजपा को मध्यप्रदेश में जीत के लिये, आदिवासी वोटों की बहुत जरूरत है। यदि मध्यप्रदेश में भाजपा शिवराज सिंह के विरूद्ध किसी आदिवासी विकल्प को चुनती है तो, इसका व्यापक प्रभाव छत्तीसगढ और राजस्थान के चुनाव परिणाम पर पड़ना स्वाभाविक है।। मध्यप्रदेश राज्य गठन से लेकर आज तक, आदिवासी वर्ग के किसी भी नेता को राज्य में नेतृत्व नहीं सौपा गया। यह भी सच है कि राज्य गठन से लेकर आज तक राज्य में अनु. जाति का भी कोई सक्षम नेता नेतृत्व नहीं कर पाया है।
राजनैतिक रूप से देखा जाये तो अनु. जाति के बाद राज्य में, बहुजन समाज पार्टी और भिम सेना जैसे कई विकल्प मौजूद है। जिनमें से पिछले कई चुनाव से बहुजन समाज पार्टी राज्य में अपना प्रभाव समय-समय पर प्रदर्शित करती रही है। जबकि आदिवासियों की सम्पूर्ण निष्ठा होंने के बावजूद पिछले चुनाव में भाजपा इसी वर्ग के समर्थन से वंचित रह गई। यह वर्ग अन्य किसी विकल्प के अभाव में किसी राष्ट्रीय दल के साथ अपना गठबंधन बनाता है ऐसा मध्यप्रदेश का इतिहास रहा है। इसके अतिरिक्त वनवासी क्षेत्रों में रहने वाले इस वर्ग के मतदाता भी अपनी निष्ठा राष्ट्रीय दलों के प्रति रखते हैं। यह बात अलग है कि गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे संगठनों में इस वर्ग में कुछ प्रतिशत जागरूकता पैदा की है।
यदि इस समय में भाजपा नेतृत्व का निर्णय आदिवासी वर्ग के पक्ष में लेती है तो, उसका प्रत्यक्ष लाभ वर्ष 2023 चुनाव में ही नहीं वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव तक भाजपा भलिभांति इसका लाभ ले सकती है। मध्यप्रदेश के आदिवासी नेताओं को केन्द्रीय स्तर पर मंत्रीमंडल में जगह दे कर भाजपा ने यह प्रमाणित कर दिया था कि उसका ध्यान आदिवासियों के लिये नीतिया बनाने और क्रियान्वियत करने के प्रति सकारात्मक है। परंतु कांग्रेस हो या भाजपा किसी ने भी आदिवासी वर्ग को कभी राज्य के नेतृत्व के लायक समझा ही नहीं। यही कारण है कि इस वर्ग से संबंधित नीतियों के क्रियान्वयन में राज्य हमेशा पिछड़ा रहा।