बिहार की राजनीति का-राष्ट्रव्यापी असर दिखा
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): राष्ट्रीय राजनीति में बिहार के हाल ही में हुये राजनैतिक घटनाक्रम का क्या योगदान होगा, इसकी समीक्षा करने के लिए घटनाक्रम के पश्चात् चल रही राजनैतिक गतिविधियों आरोप-प्रत्यारोपों पर बारीकी से निगाह रखने की जरूरत है। बिहार में हुये उलट-फेर ने एक नई राजनैतिक चेतना का संचार क्या समुचे भारत में किया है। क्या बिहार का राजनैतिक घटनाक्रम पिछले 8 वर्षों से चली आ रही राजनैतिक प्रक्रिया को भयहीन बनाकर एक नई दिशा देने जा रहा है। इन सारे सवालों के जवाब फिलहाल नहीं दिये जा सकते, पर यह तय है कि कुछ परिवर्तन के संकेत लगतार मिलने लगे है। इस घटनक्रम के आसपास ही आम आदमी पार्टी के द्वारा रेवडी कल्चर के विरूद्ध शुरू किया गया अभियान भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं के मध्य क्रमशः बोखलाहट पैदा कर रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री ने रेवडी कल्चर की आलोचना ऐसे समय की है जब बिहार समुचे देश की राजनीति को झंझोर कर जगा रहा था। रेवडी कल्चर को जन कल्याण की योजनाओं के साथ संयुक्त करके आम आदमी पार्टी के केजरीवाल ने एक नये विवाद को जन्म दे दिया है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आटा, दाल, चावल, चीनी, दूध, मक्खन, और दही पर टैक्स लगाने वाली सरकार अरबपति, उद्योगपतियों के लाखों रूपये की टैक्स माफी कैसे जायज ठहराती है।
हर कदम पर प्रतिदिन नये टैक्स आम आदमी के लिये नया बोझ बनते जा रहे है। आर्थिक बदहाली का हवाला देकर एक ओर वरिष्ठ नागरिकों को रेल में रियायत देने से सरकार मुकर जाती है। तो दूसरी और खरबों रूपये के मालिक बनें बिजनेसमेन को जेड श्रेणी की सुरक्षा देने सहित बैंक कर्जो से मुक्ति और टैक्स की माफी का उपराह भी देना नहीं भुलती। केजरीवाल ने वर्तमान लोकतांत्रिक ढ़ांचें पर परिवारवाद और उसके बाद दोस्तवाद पर लगातार प्रहार किये है। देश का आम मतदाता इस प्रश्न के महत्व को समझ रहा है कि उसकी दैनिक जरूरतों पर लगातार टैक्स वसूली और धनपतियों को रियायत देना किस लोकतांत्रिक ढ़ांचे में सही ठहराया जा सकता है।
बिहार की राजनीति के पूर्व झारखण्ड में कुछ विधायकों की कार में मिले लाखों रूपये एक नई राजनैतिक संस्कृति का प्रतिक बन गये है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में परिवर्तित हुये नेतृत्व को अब समायिक मानने के लिये आम मतदाता भी तैयार नहीं है। उपलब्ध प्रमाण यह स्पष्ट करते हैं कि लोकतंत्र की मंडी में काला बाजार से इकट्ठा किया गया धन किस तरह जन प्रतिनिधियों की आस्थाओं और आकांशाओं के साथ बेचा या खरीदा जा रहा है।
बिहार की राजनीति ने संकट आने के पूर्व ही जिस तरह करवट ली है वह भी कई विपक्षी दलों के शासित राज्यों के लिए एक उदाहरण बन गया है। राजनीति में परस्पर विश्वास का अंत तो पहले ही हो चुका था, अब उसके गिरते स्तर ने राजनीति करने वालों को भी सतर्क कर दिया है। आज भाजपा के प्रवक्ता अलग-अलग उदाहरणों के माध्यमों से अलग-अलग आरोप लगाकर बिहार की राजनीति को भला-बूरा कहें पर यह तय है कि यदि नीतिश कुमार सतर्क न होते और परिवर्तन में थोडी सी देर लगा देते तो बिहार के परिणाम भी मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की तरह आज नजर आ रहे होते।
लोकतांत्रिक मूल्यों को बार-बार न्यायालय के सम्मुख ले जाकर उससे निर्देश मांगना संभवतः न्यायालय की अवमानना ही है, परंतु वर्तमान संदर्भ में यह परिपाटी महत्वपूर्ण बन चुकी है। पिछले दिनों नूपुर शर्मा द्वारा सम्प्रदायिक हिन्सा को बढ़ाने के लिये दिये गये एक बयान को लम्बे समय तक विलम्बित रख कर अंत में नूपुर शर्मा को एक बढ़ी राहत दिलवा पाने में राजनैतिक दल सफल रहे। इससे आम व्यक्ति में न्याय पालिका के प्रति अब तक बना हुआ विश्वास कितना मजबूत होगा और राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए षडयंत्रों के अनुमोदन का सिलसिला कितना विस्तारित होगा यह समय ही बतायेगा।
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): राष्ट्रीय राजनीति में बिहार के हाल ही में हुये राजनैतिक घटनाक्रम का क्या योगदान होगा, इसकी समीक्षा करने के लिए घटनाक्रम के पश्चात् चल रही राजनैतिक गतिविधियों आरोप-प्रत्यारोपों पर बारीकी से निगाह रखने की जरूरत है। बिहार में हुये उलट-फेर ने एक नई राजनैतिक चेतना का संचार क्या समुचे भारत में किया है। क्या बिहार का राजनैतिक घटनाक्रम पिछले 8 वर्षों से चली आ रही राजनैतिक प्रक्रिया को भयहीन बनाकर एक नई दिशा देने जा रहा है। इन सारे सवालों के जवाब फिलहाल नहीं दिये जा सकते, पर यह तय है कि कुछ परिवर्तन के संकेत लगतार मिलने लगे है। इस घटनक्रम के आसपास ही आम आदमी पार्टी के द्वारा रेवडी कल्चर के विरूद्ध शुरू किया गया अभियान भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं के मध्य क्रमशः बोखलाहट पैदा कर रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री ने रेवडी कल्चर की आलोचना ऐसे समय की है जब बिहार समुचे देश की राजनीति को झंझोर कर जगा रहा था। रेवडी कल्चर को जन कल्याण की योजनाओं के साथ संयुक्त करके आम आदमी पार्टी के केजरीवाल ने एक नये विवाद को जन्म दे दिया है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आटा, दाल, चावल, चीनी, दूध, मक्खन, और दही पर टैक्स लगाने वाली सरकार अरबपति, उद्योगपतियों के लाखों रूपये की टैक्स माफी कैसे जायज ठहराती है।
हर कदम पर प्रतिदिन नये टैक्स आम आदमी के लिये नया बोझ बनते जा रहे है। आर्थिक बदहाली का हवाला देकर एक ओर वरिष्ठ नागरिकों को रेल में रियायत देने से सरकार मुकर जाती है। तो दूसरी और खरबों रूपये के मालिक बनें बिजनेसमेन को जेड श्रेणी की सुरक्षा देने सहित बैंक कर्जो से मुक्ति और टैक्स की माफी का उपराह भी देना नहीं भुलती। केजरीवाल ने वर्तमान लोकतांत्रिक ढ़ांचें पर परिवारवाद और उसके बाद दोस्तवाद पर लगातार प्रहार किये है। देश का आम मतदाता इस प्रश्न के महत्व को समझ रहा है कि उसकी दैनिक जरूरतों पर लगातार टैक्स वसूली और धनपतियों को रियायत देना किस लोकतांत्रिक ढ़ांचे में सही ठहराया जा सकता है।
बिहार की राजनीति के पूर्व झारखण्ड में कुछ विधायकों की कार में मिले लाखों रूपये एक नई राजनैतिक संस्कृति का प्रतिक बन गये है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों में परिवर्तित हुये नेतृत्व को अब समायिक मानने के लिये आम मतदाता भी तैयार नहीं है। उपलब्ध प्रमाण यह स्पष्ट करते हैं कि लोकतंत्र की मंडी में काला बाजार से इकट्ठा किया गया धन किस तरह जन प्रतिनिधियों की आस्थाओं और आकांशाओं के साथ बेचा या खरीदा जा रहा है।
बिहार की राजनीति ने संकट आने के पूर्व ही जिस तरह करवट ली है वह भी कई विपक्षी दलों के शासित राज्यों के लिए एक उदाहरण बन गया है। राजनीति में परस्पर विश्वास का अंत तो पहले ही हो चुका था, अब उसके गिरते स्तर ने राजनीति करने वालों को भी सतर्क कर दिया है। आज भाजपा के प्रवक्ता अलग-अलग उदाहरणों के माध्यमों से अलग-अलग आरोप लगाकर बिहार की राजनीति को भला-बूरा कहें पर यह तय है कि यदि नीतिश कुमार सतर्क न होते और परिवर्तन में थोडी सी देर लगा देते तो बिहार के परिणाम भी मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की तरह आज नजर आ रहे होते।
लोकतांत्रिक मूल्यों को बार-बार न्यायालय के सम्मुख ले जाकर उससे निर्देश मांगना संभवतः न्यायालय की अवमानना ही है, परंतु वर्तमान संदर्भ में यह परिपाटी महत्वपूर्ण बन चुकी है। पिछले दिनों नूपुर शर्मा द्वारा सम्प्रदायिक हिन्सा को बढ़ाने के लिये दिये गये एक बयान को लम्बे समय तक विलम्बित रख कर अंत में नूपुर शर्मा को एक बढ़ी राहत दिलवा पाने में राजनैतिक दल सफल रहे। इससे आम व्यक्ति में न्याय पालिका के प्रति अब तक बना हुआ विश्वास कितना मजबूत होगा और राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए षडयंत्रों के अनुमोदन का सिलसिला कितना विस्तारित होगा यह समय ही बतायेगा।