सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): एक बार फिर भारत की राजनीति में दिशा परिवर्तन के रूप में बिहार राज्य की राजनीति ने अग्रणी भूमिका निभाई है। भारत छोड़ों आंदोलन दिवस पर बिहार ने किसी अज्ञात भितरघात की प्रत्याशा ने राजनीति में जो व्यवहारिक परिवर्तन परिणाम में बदल दिया है। उसने पिछले 8 सालों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर हुए राजनैतिक घटना क्रमों से अलग हटकर एक नया संकेत दिया है। महाराष्ट्र की राजनीति में शिव सेना को निस्तनाबूद करने के बाद बिहार में भी तोड़-फोड़ के व्यापक संकेत पिछले तीन महीनों से लगातार मिल रहे थे। परंतु बार-बार राजनीति के बादल घने होकर भी परिवर्तन की बारिश नहीं कर पा रहे थे। इसके पहले मध्यप्रदेश में जो परिपाटी सफल रही थी, उसको बार-बार प्रबंधक लोटॅस के नाम पर किसी न किसी रूप में विपक्षीदल शासित राज्यों में लागु करने की प्रक्रिया केन्द्र सरकार के राजनैतिक पंडितों द्वारा योजना बद्ध की जा रही थीं।
बिहार में जब इसी क्रम में परिवर्तन के विस्फोट को विद्रोह की शक्ल देकर प्रारंभ किया गया तो चरित्र से विद्रोही और समाजवादी नेताओं के गढ़ कहे जाने वाले इस राज्य ने पूरी चैसर को ही पलट दिया। बिहार से प्राप्त राजनैतिक संकेत कहतें है कि यदि यह नहीं होता तो वो जरूर हो जाता जो मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में किया गया था। बिहार अपने आप में एक सम्पूर्ण जागरूक राज्य है, यह बात अलग है कि कम शिक्षा, गरीबी और रोजगार के कम अवसरों के कारण इस राज्य के आम व्यक्ति की प्रवृत्ति हिंसक और विद्रोही है। पर इतिहास गवाह है देश की सत्ता में सबसे बड़ा परिवर्तन करने वाला जय प्रकाश आंदोलन इसी राज्य से पैदा होता है, संभवतः इस बात की गंभीरता को इस बार भाजपा समझ नहीं पाई।
भाजपा अन्य राज्यों की तरह ही बिहारियों की मजबूरी को अपने पक्ष में परिवर्तित करने के बाद पूरे राज्य में अपनी सत्ता को कायम करना चाहती थी। जिसके संकेत स्वयं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पटना प्रवास के दौरान एक सार्वजनिक समारोह में यह कह कर दे दिया था कि क्षेत्रीय दलों को गायब होना पडे़गा और अकेली भाजपा ही देश में शासक दल के रूप में पहचानी जायेगी।
शेर के बाड़े के बाहर खडे़ होकर हिरण के बच्चों के साथ घीगा मस्ती करने के परिणाम कितने घातक हो सकते है इसका एहसास भाजपा को बहुत देर से हुआ। जब तक राजनीति के सही मायनों में चाणक्य माने जाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार समुची सत्ता का समीकरण ही बदल चुके थे। वास्तव में ऑपरेशन लोटॅस के नाम पर जिस तरह विपक्षीय सरकारों का अस्तित्व खत्म किया गया है उससे किसी भी लोकतांत्रिक देश को चिंता हो सकती है। आम जनता की आवाज को उठाने का काम करने वाले विपक्ष के न्यूनतम होंने की दशा में सत्ता का निरंकुश होना स्वाभाविक है जिससे तानाशाही जन्म लेती है। देश का आम जनमानस इस तथ्य को समझ कर भी नहीं समझ पा रहा धर्म के नाम पर वो राष्ट्र उसकी सम्पत्ति और उसकी आत्मा को बहुमत के सहारे धीरे-धीरे खोता जा रहा है। 
भारत के इतिहास में संभवतः ऐसे क्षण कम आये होंगे, जब एक बहुत बड़े बहुमत की केन्द्र सरकार को बिहार जैसे छोटे राज्य ने न सिर्फ मुह की खानी पड़ी बल्कि लोकतंत्र की मंडी सजने के पहले ही पूरी तरह समाप्त कर दी गई और बहुमतधारी सिवा अनर्गल आरोपों के और कुछ नहीं कर सके। बिहार का जाना भाजपा के लिये राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा नुकसान है, इससे कही ज्यादा एक चेतावनी भी है कि राष्ट्रीय एजेंसियों के माध्यम से दबाव डालकर सत्ता हस्तान्तरण की कोशिशों का षडयंत्र व्यवहारिक रूप में पहली बार बेनकाब हो गया है। कभी सोचिये प्रबंधक निदेशालय और सीबीआई जैसे संवेधानिक संगठन और उसमें पदस्थ अधिकारी, कर्मचारी क्या स्वयं को बंधुआ और पालतु मजदूर नहीं समझते होंगे जो सिर्फ पट्टा खोल देने से ही किसी की इज्जत आबरू को चंद मिनटों में धूल में मिला देते हैं। यदि यही कार्य देश के लिये हो तो समझ में आता है पर सत्ताधारी मालिकों के लिए बार-बार उल्हाना झेलने के बाद भी इन एजेंसियों का मनोबल किस कदर गिरता होगा इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है।