सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में वे कौन से मुद्दें होंगे जो कि आम मतदाताओं की भावनाओं को प्रभावित करके किसी पार्टी को बहुमत की ओर ले जा सकते हैं। चुनाव के दौरान कार्यकर्ताओं की सक्रियता एवं ईमानदारी के अतिरिक्त सही मुद्दों का चयन एक मात्र विजय का सहारा होता है। पिछले दिनों हुये राज्य के बुनियादी संस्थाओं के चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि स्थानीय चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक अब राष्ट्रीय मुद्दों पर और केंद्रीय नेताओं के चेहरे पर नहीं लड़े जा सकेंगे। वर्ष 2023 में विधानसभा चुनाव समाप्त होंने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2024 का लोकसभा निर्वाचन सम्पन होना है। ऐसी स्थिति में मुद्दों की पहचान करना राष्ट्रीय दलों के लिये अब बहुत जरूरी हो चुका है।
कम्प्यूटर के माध्यम से सर्वेक्षणों को भरवाकर हम अपने पक्ष में बहुमत का निर्धारण तो कर सकते है, अपने आत्मविश्वास को अति आत्मविश्वास पर भी पहुंचा सकते हैं। पर आने वाले चुनाव के परिणाम आने वाले समय में मुद्दों की गंभीरता और मतदाताओं की भावनाओं के अनुरूप ही होंगे। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में कभी भी आदिवासियों के हाथ में नेतत्व किसी राजनैतिक दल ने नहीं सौपा है। इसके अलावा अनु. जाति का भी कोई व्यक्ति अभी तक इस काबिल नहीं पाया गया है कि उसे राज्य का नेतृत्व सौपा जा सकें। पूरे राज्य में स्वतंत्रता के बाद से आज तक कोई ऐसी बड़ी योजना किसी भी सरकार ने लागु नहीं की है जिसका दीर्घकालीन लाभ इन वर्गो को मिल सके।
अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रचार माध्यमों में हम मध्यप्रदेश को आदिवासी राज्य के रूप में संबोधित करते हैं। केन्द्र सरकार और समूचे विश्व से आदिवासियों के विकास के नाम पर मिलने वाले एक बड़े बजट और उससे संबंधित योजनाओं को भी हम क्रियान्वित करने का दावा करते है। परंतु ग्रामीण स्तर पर जहां सच में भारत बसता है, आदिवासी वर्ग की हालत अभी भी स्वतंत्रता के 75 वर्ष के बाद भी नहीं बदल सकी है। यह परिवर्तन तब तक संभव नहीं है जब तक इसी वर्ग से कोई व्यक्ति इतनी लम्बी यातना को भोगने के बाद नेतृत्व की कमान न सभाल लें।
ऐसा नहीं है कि राजनैतिक दलों के पास अनु. जाति और जनजाति वर्ग के नेतृत्व के लिए कोई चेहरा न हो। परंतु राष्ट्रीय दलों की नियत में हमेशा खोट रहा है और उन्होंने इन दोनों ही वर्गो के प्रतिनिधित्व के साथ हमेशा छल किया है। आज यह दावा किया जाता है कि छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा की 18 वर्ष की सरकार ने सुविधाओं का अंबार लगा दिया हैं, इसका कोई भी प्रत्यक्ष और जीवित उदाहरण राज्य में कहीं देखने को नहीं मिलता। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी जैसे नये राजनैतिक दल अब आदिवासी वर्ग के मध्य चेतना फैला रहे हैं। धीरे-धीरे आदिवासियों को भी ज्ञात हो रहा है कि प्रत्येक वर्ष उनके नाम पर अरबों रूपये का फंड सरकारी दस्तावेजों में कहीं गायब हो जाता है। उनके पास यदि कुछ बचता है तो शरीर पर लपेटी गई लंगोट और हर नये दिन में नये आश्वासनों का एक पिटारा। 
इस बार के विधानसभा चुनाव में गोडवाना गणतंत्र पार्टी के अलावा आम आदमी पार्टी भी मैदान में मोर्चा संभालेगी। आदिवासी नेतृत्व के इस प्रश्न पर खुले मंच से कई रहस्य खोले जायेंगे, इस तथ्य को वर्तमान में दोनो ही राष्ट्रीय दलों के नेताओं ने अपने-अपने हाई कमान के सामने छुपा लिया है। कोशिश यही की जा रही है कि 2023 को बहुमत मिलने के बाद अनु. जाति और जनजाति वर्ग को फिर अंगुठा दिखा कर किसी काबिल स्वर्ण या पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति को नेतृत्व सौप दिया जाए, परंतु अगले चुनाव में यह संभव नहीं होगा। संगठित होकर आदिवासी वर्ग अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए नेतृत्व की मांग करेगा और अपनी दावेदारी को मजबूत करने के लिए किसी बड़े जन आंदोलन को भी जन्म देगा।