सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): हर चुनाव में पराजय के बाद यदि समीक्षा बैठकों का दौर, अगले चुनाव में विजय दिलाने के लिए एक महत्वपूर्ण मंत्र होता तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस निश्चित रूप से एक चुनाव हार कर दूसरा चुनाव जीत लेती । परंतु समीक्षा के इस नाटक में परिणाम क्या निकलता है और उससे आने वाली गतिविधियों के लिए पार्टी को क्या लाभ मिलता है। यदि इसकी भी समीक्षा की जाये तो वास्तविकता शून्य मिलेगी। कांग्रेस मठाधीशों की तरह व्यवहार करती है, समीक्षा भाजपा भी करती है पर उस समीक्षा से मिले हुये निचोड से पार्टी अपनी भविष्य की योजनायें बनाती है। भाजपा और कांग्रेस में अंतर यह है कि भाजपा अपने अंतिम कार्यकर्ता तक किसी न किसी रूप में कार्यक्रम और नीतियों को पहुंचा पाने में सफल है। जबकि कांग्रेस के वातानुकुलित कमरों में बैठे हुये प्रथम, द्वितीय और तृतीय वर्ग पंग्ति के नेता इस कार्य को महत्वपूर्ण नहीं मानते।
कांग्रेस में बड़ी तादात में उन युवाओं की उपस्थिति आज भी है, जो पिछले 10 वर्षो के दौरान अपने-अपने जिले, कस्बे या गांव में प्रभावी थे। कार्यकर्ताओं की यह फोज जो उनके क्षेत्र को नेतृत्व प्रदान करती थी भोपाल में बैठे बडे़ नेताओं के वर्षो तक थेले उठाने के बाद अब अपने निजी धंधों में संलग्न हो गई है। इनमें से कई पूर्व प्रभावी नेता अपना बिजनेस संभाल रहे है या  अन्य प्रभावशील लोगों से मिलकर उन नये धंधों की तलाश कर रहे है जो अन्य दलों से संबंधित प्रभावशील नेताओं द्वारा संचालित किये जा रहे है।
भाजपा यह भंलिभांति जानती है कि सफेद कपडों में कभी दाग न लगने देने वाले कांग्रेसी नेताओं की जमीन में हैसियत कितनी है। आम मतदाताओं की भावनाओं को भड़का कर या उनमें धार्मिक उंमास पैदा कर बहुत आसानी से भाजपा कांग्रेस को पटखनी दे देती है और हारा हुआ कांग्रेसी नेता समीक्षा कक्ष में जाकर अपनी हार का ठिकरा दूसरे के सर फोड़ने में लग जाता है। 
वास्तव में कांग्रेस के हाई कमान ने मध्यप्रदेश को कभी राज्य माना ही नहीं। राज्य में स्व. अर्जुन सिंह संभवतः वे अंतिम नेता थे, जिससे मध्यप्रदेश की राजनीति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलती थी। उनके स्वर्गवास के बाद मध्यप्रदेश में झंडा लेकर चलने वाला नेतृत्व क्रमशः अपने निजी व्यवसायक के लिये पहले राजनीति करने का मन्तव्य रखता है। कांग्रेस हाई कमान जिस तरह उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने उतरता है। यदि वही प्रयोग एक बार मध्यप्रदेश में कर पाता तो राज्य की टूटी-फूटी कांग्रेस एक जूट होकर कम से कम मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो अपनी विजय पताका लहरा सकती थीं। 
इस तर्क के बावजूद भी प्रियंका गांधी या राहुल गांधी मध्य्रपदेश के लिए कोई राजनैतिक सोच रखते हों ऐसा लगता नहीं। तभी बैसाखियों पर चल ही मध्यप्रदेश की कांग्रेस लावारिस की तरह एक कंधे से दूसरे कंधे पर अपने स्वयं के शव को ढो रही है। स्थानीय संस्थाओं के चुनाव परिणामों के बाद भी अगली विजय के लिए कांग्रेस के पास न कोई जोश है और ना ही विस्तारित किया हुआ संगठन। योजनाकार कांग्रेस की लिस्ट से पूरी तरह लापता है, राजनीति की मुख्य शाखा कहीं जाने वाली दल की युवा वाहनी बड़े नेताओं के भैंस के बाडें में अपना अस्तित्व बनाये हुये है।  मैदान से युवाओं का कोई लेना देना रहीं है, चंद स्थापित नेताओं के नौनिहाल मुह में दूध की बोतल दबाकर कांग्रेस की युवा राजनीति को सक्रिय करने का दम भर रहे हैं। वास्तव में कांग्रेस का ध्यान राज्य की राजनीति की और नहीं है, राज्य की व्यवसायिक गतिविधियों में कांग्रेस जरूर सक्रिय है। अपने पूरे जीवन काल में कोई विशेष राजनैतिक संदर्भ नहीं रखने वाले वरिष्ठ नेता प्रभावशील नेतृत्व के इर्द-गिर्द चौकड़ी जमाकर इस तरह बैठे हैं कि कोई नई हवा संगठन प्रमुख के पास तक गलती से भी नहीं पहुंच जाए और कांग्रेस विधानसभा चुनाव में 60-70 सीटें जीत कर केवल अपने अस्तित्व को संरक्षित कर सकें।