जनता के बिच जननीति को - बदलने की आवश्यकता
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश की चुनावी रणनीति का प्रतिबिम्ब इस स्थानीय संस्थाओं के चुनाव के बाद भाजपा की ओर अधिक झुकता हुआ प्रतित हो रहा है। जनपद अध्यक्षयों के चुनाव में 170 में से केवल 43 जनपद अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस काफी पिछड़ गई है। यह माना जाता है कि किसी भी राज्य में होने वाले स्थानीय संस्थाओं कि चुनाव उस राज्य में सत्ता में मौजूद पार्टी के पक्ष में जाने की संभावना अधिक होती है। इसके बावजूद जनपद स्तर पर भाजपा का इस तरह चुनाव को एक तरफा कर लेना संभवतः यह प्रदर्शित करता है कि निर्वाचन के अंतिम वर्ग के लिए जिम्मेवार जन समूह में 18 वर्ष पुरानी भाजपा की शिवराज सरकार के प्रति अभी भी गहरी आस्था है। इस संदर्भ में वास्तविकता का परिक्षण आने वाले कुछ दिनों में मैदान पर ही हो जायेगा। पर फिलहाल भाजपा विजय का इतना बड़ा सेहरा बांधने के बाद यह दावा तो कर सकती है कि जदपद स्तर पर अभी भी अपनी साख को कायम रखा है।
मध्यप्रदेश की राजनीति को बारीकी से जानने वाले लोगों का मानना है कि कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा या चमत्कारी व्यक्तित्व नहीं है। केवल कमलनाथ अपनी योजनाओं और प्रबंधन की उच्च तकनीकी के भरोसे कांग्रेस की नय्या को चला रहे है। मध्यप्रदेश की राजनीति मूलतः जमीन से, जाति से वर्ग से, सम्प्रदाय से और इन सबसे ऊपर चौक चौबारे में चलने वाली चर्चाओं की अफवाहों से संचालित होती है। इतने निचले स्तर तक जाकर राजनीति को संभाल पाने की शक्ति क्या वर्तमान कांग्रेस के पास है, इस पर संदेह है। वास्तव में कांग्रेस की प्रदेश स्तरीय राजनीति को हमेशा से श्रेणियों में बाट के उनके माध्यम से कार्य एवं दायित्वों का निर्वाहन होता रहा है।
कांग्रेस का प्रभावशाली तबका इतिहास से लेकर आज तक केवल अपनी राजनीति का सूझबुझ का परिचय अपने राज्य भर में फैले हुये अनुयायिओं को निर्देश देकर करता रहा है। यह अनुयायी वेतन भोगी नहीं होते थे। पर इनकी महत्वाकांशा सबसे ऊची पायदान पर पंहुचने की होती थी। आज किसी अनुयायी शब्द को हम प्रबंधन की शैली में प्रबंधक के रूप में देखते है, जिसमें आकड़े तो उपलब्ध होते है पर जन भावनाओं का कोई मिश्रण निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता।
यही कारण है कि कांग्रेस पिछले दो दशकों से लगतार चाटूकारों को पालने वाली और कम्प्यूटर के माध्यम से व्यूह रचना बनाने वाली पार्टी बनकर रह गई है। इस बार के निर्वाचनों में कुछ परिवर्तन जरूर दिखा, जिसमें स्वार्थी और वरिष्ठ कहें जाने वाले नेताओं की महत्वकांशा ने कमलनाथ के सर्वेक्षण ने व्यवधान डाल दिया। परिणामतः राज्य के दो बड़े नगर निगम कांग्रेस की झोली में आ गिरे, जिसे कांग्रेस ने अपनी सबसे बेहतर प्रदर्शन का मानक मान लिया। मध्यप्रदेश में राजनीति में परिर्वतन करने के लिये और उसे अपनी भावनाओं के अनुरूप में बनाने के लिये दोनों राष्ट्रीय दलों को अभी बड़ा संर्घर्ष करना है। यह तय है कि 18 साल तक शासनकाल के बाद मध्यप्रदेश का मतदाता मुख्यमंत्री का चेहरा बदलना चाहता है। दूसरी और कांग्रेस को जमीन में उन नेताओं की खोज करनी होगी, जो मानवीय भावनाओं और मतदाता की व्यक्तिगत सोच को समझ कर योजनाओं का निर्माण कर सकें। कांग्रेस को प्रदेश के हर मतदाता के घर घुस कर उसके अनुसार आचरण करने की परिपाटी बनानी होगी, जिसमें पिछले दो दशक में कांग्रेस पूरी तरह फेल रही है।