सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): प्रदेशों की राजनीति के साथ-साथ अब राष्ट्रीय राजनीति में भी भविष्य के परिवर्तनों और उठा-पटक को लेकर संकेतों की बारिश शुरू हो गई है। राज्यों का नक्शा बदलने के लिए जिस तरह से तंत्र का उपयोग पिछले दो दशक की राजीनति में प्रारंभ हुआ है उसी को विस्तारित कर कर, कुटनीतिक चालों के माध्यम से कुछ नये करने की कोशिश की जा रही है। कर्नाटक में एक आरोपित मंत्री ईश्वरप्पा को क्लीनचीट देकर दक्षिण भारत में जिस नई राजनैतिक प्रणाली को आश्रय दिया जा रहा है, वह संकेत है कि भविष्य में भारत की राजनीति से अलग-थलक किंतु प्रभावशाली रहने वाली दक्षिण की राजनीति अब नेशनल एजेंडे में एक रूपता प्राप्त करने जा रही है।
ऐसा नहीं है कि राजनीति का यह परिवर्तन संकेतों के रूप में पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर उत्तर भारत के राज्यों में नहीं दिख रहा है। राजस्थान जहां निकट भविष्य में विधानसभा के चुनाव होने है को भी पाकिस्तान सीमा के निकटता के कारण नये आतंकवादी षडयंत्रों का केन्द्र बनाया जा रहा है। यह प्रमाणित करने की कोशिश की जा रही है कि एक संप्रदाय विशेष को कांग्रेस सरकार संरक्षण देकर बहु संख्यक समुदाय के हितों का अनादर कर रही है। राजनीति की इसी लाइन पर लगभग पूरे देश में पिछले दो दशक से लगातार प्रयोग चल रहे है। एन चुनाव के पहले हिन्दू-मुस्लिम के मध्य विभाजन की रेखा को इतना मजबूत बनाया जाता है कि आम आदमी से जुडे हुये लोग दैनिक जीवन के मुद्दे और कमजोरियां कहीं गायब हो जाती है। यही प्रयोग हर राज्य और केन्द्र सरकार के बार-बार पुर्ननिर्माण में मददगार सिद्ध होता है। आम व्यक्ति प्रतिदिन अपनी समस्याओं से लड़ते हुये भी जाति और सम्पद्राय के मध्य की विभाजन रेखा में इतना उलझ जाता है कि उसे मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी और लगातार उसके जीवन यापन की सुविधाओं में हो रही कमी का एहसास मतदान केन्द्र में महसूस ही नहीं होता। 
इस तरह का प्रयोग राजस्थान में प्रभावी है। जिसके क्रमशः मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ पहुंचने की पूरी संभावना है, जिसके बीज संभवतः बो दिये गये हैं। इस देश में धर्म के नाम पर भूखे-नन्गे की भावनाओं को भड़का कर शासन करने का प्रयोग पिछले दो दशक के दौरान निरंतर सफल रहा है। आम आदमी अपनी जरूरतों के लिए पांच साल तक भिखारी बन कर मुफ्त में बांटे जाने वाले अनाज की प्रतिक्षा करता है, अपनी शारीरिक शक्ति और काम के प्रति समर्पण को भूल जाता है। इतना ही नहीं उसे भिखारी बन कर मुफ्त अनाज बटोरने में शर्म आना बंद हो जाती है। यह उस राष्ट्रवाद का कमाल है जिसकी आधारशिला जाति और संप्रदाय के नाम पर रखी जाती है।
राजनीति के जानकार मानते है कि जाति और संप्रदाय के नाम पर पैदा किया गया राष्ट्रवाद जन सामान्य को स्वीकार्य राष्ट्रवाद नहीं हो सकता। एक भूखे आदमी के पेट में दो रोटी भीख में डालकर आप राष्ट्रवाद के जय कार नहीं लगवा सकते। परंतु प्रतिबंद्धता कुछ इस हद तक हो चुकी है कि धीरे-धीरे अपनी इस तंगहाली और गरीबी को आम भारतीय ने अपनी नियति में के रूप में स्वीकार करना शुरू कर दिया है। यह राष्ट्रवाद कितना स्थायी होगा इसके लिए कुछ और वर्षो तक इंतजार करना होगा।