सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): इस वर्ष पूरे देश में मानसून की दस्तक प्रारंभ के कुछ दिनों में ही इतनी भयावह रही है, कि बीमारियों और प्राकृतिक आपदाओं से पीडित भारतवासी बाढ़ के खतरों से बहुत भयभीत हो चुके हैं। विकास के नाम पर हमनें सड़कों का एक जाल पहाड़ों, जंगलों को काट कर बहुत तेजी से बनाया था। वास्तव में पिछले आठ सालों की केन्द्र सरकार का यह सबसे सफलतम अभियान था, जिससे पूरा देश सड़क मार्ग से आपस में जुड़ गया। 
विकास के नाम पर प्रकृति को इस तरह छेड़ना और स्वाभाविक रूप से बने हुये एक माहोल को आधुनिकतम बनाने की चाह में जमीन को मजबूत बनाये रखने की प्राकृतिक कोशिश का विध्वंस कर देना, इस बड़ी विभीषिका का मुख्य कारण बन कर सामने आया। पूरे देश में पानी उतरने के बाद ही पता चलेगा कि विकास की वह अवधारणा जो जंगल और पहाड़ों को पूरी तरह काट कर जन्म ले रही थी वास्तव में कितनी मजबूत थी। अरबों-खरबों रूपऐ हमने नये ढांचे को बनाने में लगा दिये। इन नई सड़कों पर कई जगह हमने सेना के हवाई जहाज उतार कर इनका रनवे के रूप में उपयोग करने की दोहरी क्षमता का परिचय दिया। पर क्या वास्तव में मौसम में होने वाली भारी बारिश से मरने वाले सैकड़ों लोगों की जान इस विकास की कीमत के रूप में हमने चुकाई है। 
पानी उतरने दीजिये, विकास की उखड़ी हुई कहानी पहाड़ों से लेकर मैदानों तक बिखरी हुई मिलेगी। जिसे हम पुरानी संस्कृति कहते थे और जिसे हमने तोड़ कर सड़कों में सीमेंट का एक जाल विकसीत किया था, उसकी दुर्दशा आने वाले कुछ महीनों में ही सामने आ जायेगी। फिर महीनों लगेंगे, अरबो रूपए खर्च करके यातायात की आधुनिक सड़क का पुर्न निर्माण करने के लिए, तब तक ही अगले बरस का मानसून खड़ा हो जायेगा।
इस मानसून में कितने पहाड़ टूट कर जमीन पर बिखर गये। पहाड़ों में बना हुआ जंगलों का साम्राज्य किस हद तक पहाड़ों से फिसल कर जमीन पर आ गिरा। यह संकेत है कि विकास के नाम पर प्रकृति से हमने बहुत बड़ा धोका किया है। यदि क्रम इसी तरह चलता रहा और विकास की अवधारणा को पर्यावरण और प्रकृति के साथ एक सामन्जसय के रूप में विचार हेतु स्वीकार नहीं किया गया तो न जंगल रहेंगे न जमीन और नाही पहाड़ के किनारे दौड़ती हुई चमचमाती हुई ये विकास की सड़कें, जो कुछ महीनों तक ही हमें विकसीत होने का भ्रम दे सकती है। 
देश में ही नहीं मध्यप्रदेश में ही उन सही सड़कों का अवलोकन कीजिये, जो जंगल मार्ग से निकलती हुई जिलों की दूरियों को कम कर रही है। कई स्थानों पर पहाड़ों पर पेड़ हवा में लटके हुय हैं, जड़ के लिए पहाड़ पर कोई आधार ही नहीं है। बडे़-बड़े पत्थर जो पहाड़ों के कटने पर केवल एक हल्की सी बारिश या धक्के का इंतजार कर रहे हैं। विकास की यह अवधारणा कागजों में तैयार किये गये एक चित्र की तरह है, जिसमें वास्तविक रूप से अरबों रूपये की राशि खर्च करके हमने एक असुरक्षित देश का निर्माण किया है। प्रकृति अपने वास्तविक स्वरूप को पुनः प्राप्त करने के लिए इन कागजी धारणाओं को स्वयं बदल देगी। पर कितनी जन धन की हानि होगी देश और समाज कितना सुरक्षित रहेगा इसका प्रमाण मानसून की इसी बारिश में बहुत हद तक लग जायेगा।