अंतः विद्रोह की कगार पर पहुंची-म.प्र. कांग्रेस
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति में वर्तमान में दर्शन शास्त्र के सिद्धांतों का सार्वजनिक रूप से पालन किया जा रहा है। दर्शन शास्त्र का सिद्धांत कहता है कि अति हताशा के क्षणों में या अपनी पराजय को सुनिश्चित मानकर ही व्यक्ति आत्महत्या या स्वयं को चोट पहुंचाने की कोशिश करता है। आत्महंता बनने की प्रक्रिया वास्तव में विजय के उल्लास में डूबे हुए व्यक्ति के अचानक पराजित होने के लक्षणों से पैदा होती है। मध्यप्रदेश की राजनीति में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव यह स्पष्ट संकेत करते है कि युद्ध को पूर्व ही स्वयं को पराजित होता देख अब राज्य के बड़े नेता हार की पूरी जिम्मेवारी स्वयं के सर पर लेकर अनिक्षा के साथ ही हारे हुए प्रत्याशियों के जिम्मेवारियों को स्वयं ओढ़ना चाहते हैं और उस जीत का सेहरा प्रदेश अघ्यक्ष के सर पर बांध रहे है जो होनी असंभव है।
पिछलें दिनों भोपाल के छोटे से छोटे अख़बार से लेकर बड़े से बडे़ अख़बार में एक ख़बर विशेषतः छपवाई गई। यहां लेखक इस संदर्भ की जिक्र इसलिये कर रहा है कि इस तरह की सामान्य ख़बरों को छपने के लिहाज से असमान्य बनाने की प्रक्रिया केवल व्यक्तिगत सम्पर्क ही है। समाचार यह था कि कांग्रेस के चाणक्य दिग्विजय सिंह ने एक बयान के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि जिनके टिकिट काटें मैने काटे और जिन्हे टिकिट दिये उन्हें कमलनाथ ने ही दिये है अतः आप लोग पूरी नाराजगी मुझ पर उतारें कमलनाथ पर नहीं।
निराशा के भाव से पैदा हुए इस बयान में यह स्पष्ट नजर आता है कि स्थानीय संस्थाओं के चुनाव मे पूर्व से चले आ रहे अनुमान के अनुसार कांग्रेस में कार्यकर्ताओं का असंतोष ग्रामीण स्तर से राजधानी तक फेल चुका है। असंतोष इस तरह है कि उससे निपटने का कोई मार्ग प्रदेश कांग्रेस के पास नहीं है। जिन लोगों को कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दिया गया है अपने व्यक्तिगत सम्पर्को, सामाजिक प्रभाव या अन्य संसाधनों के माध्यम से यदि वे जीत भी जाते है तो इस विजय में कांग्रेस का कोई योगदान नहीं है। वास्तव में कांग्रेस को टिकिट केवल दो नेताओं के प्रभाव से बाटे है, इस बात की स्वीकारोति टिकिट वितरण के साथ ही कांग्रेस के नेताओं ने कर दी थीं।
टिकिट वितरण के साथ ही यह भी तय हो गया था कि अधिकांश महापौर के टिकिट कमलनाथ कोटे में गये है। जबकी कुछ दिग्विजय सिंह के कोटे में गये है। राज्य के अन्य नेताओं को प्रभावहीन मानकर उनके नामों का जिक्र तक कांग्रेसियों की चर्चाओं में नहीं होता था। टिकिट वितरण की यह प्रक्रिया निश्चित तौर प्रदेश अध्यक्ष द्वारा कराये गये नियमित सर्वेक्षण के आधार पर की गई होगी। पर जैसा की हम पूर्व से कहते आ रहे है कि कांग्रेस राज्य में केवल षडयंत्र के माध्यम से निजी स्वार्थो को सिद्ध करने का एक माध्यम रह गई है। मध्यप्रदेश में बिना अधिकार के प्रदेश कांग्रेस कमेटी में जीस तरह पूर्व मुख्यमंत्री का अधिपत्य घोषित किया गया और कांग्रेस की चर्चाएं प्रदेश कार्यालय से अलग हटकर प्रदेश अध्यक्ष के बंगले में जाकर सिमित हो गई। कार्यकर्ताओं से कटे होने के कारण यांत्रिक सर्वेक्षण के आधार पर कम्प्यूटर बंद जानकारी को आधार बनाकर मध्यप्रदेश को कांग्रेस मे विकास की परिकल्पना व्यर्थ है।
आज जब पूरे प्रदेश से कार्यकर्ताओं का असंतोष प्रदेश संगठन पर दबाव डाल रहा है और भाजपा जैसे मजबूत संगठन के सामने कांग्रेस बिखरी हुई नजर आ रही है। तब दिग्विजय सिंह का यह बयान कमलनाथ को बचाने की कोशिश नहीं कमलनाथ को बचाने की कोशिश नजर आता हुआ दिख पड़ता है इसकी वास्तविकता इसके विपरित है। षडयंत्र की किस स्तर पर हुआ, इसमें भागीदार कौन था, यह जानने की कोशिश कांग्रेस हाई कमान कभी नहीं करेगा। क्योकि उसकी निगाह में मध्यप्रदेश कोई राज्य नहीं है जहां उसे अपनी उपस्थिति दर्ज कराना जरूरी हो। वैसे भी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का कार्यकर्ता अब अपने बड़े नेताओं की भांति ही हाई कमान को निर्थक और निकम्मा मान चुका है। भाग्य के भरोसे कांग्रेस के अस्तित्व को बचाने के लिए राज्य में यदि कांग्रेस कुछ सीटे ले पाई तो उसमें राष्ट्रीय या प्रादेशिक नेताओं को योगदान शून्य ही रहेगा स्वंय प्रत्याशी का दमखम ज्यादा जिम्मेदार होगा।