एक और आधी अधूरी - बगावत की कोशिश नाकाम
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट इतनी तेजी से और भयावह रूप से पैदा हुआ था, एकनाथ शिन्दे एक भूल के कारण उसकी हवा उतनी ही तेजी से निकल गई। वास्तव में यह संकट में काम कर रही कठपुतलियों के डोर भाजपा के हाथ में थी। पर जब शिन्दे ने बाहरी आवरण से तंग होकर यह उत्घोषणा कर दी कि बागी विधायकों के ऊपर एक ऐसी महाशक्ति का हाथ है जिससे पाकिस्तान भी डरता है, तो भाजपा ने इस पूरे घटनाक्रम से अपना हाथ खींच लिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि शिन्दे के साथ गये हुए बागी विधायक अब पुनः शिवसेना में हाथ-पैर जोड़कर दण्ड न देने और वापसी इच्छा लेकर एक-दो दिन में वापस मुंबई पहुंच जायेंगे। और इसके साथ ही समाप्त हो जायेगा महाराष्ट्र में महाविकास आभारी की राज्य सरकार को गिराने का तीसरा प्रयास।
राजनीति में हिम्मत का होना जितना जरूरी है उससे कहीं अधिक हिम्मत करने वालों में बुद्धि और दूर दृष्टि का होना भी। महाराष्ट्र की राजनीति में पैदा किया गया संकट उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री निवास से निकाल कर पुनः अपने निजी निवास तक तो ले गया, पर वो सब नहीं कर पाया जिसकी कल्पना पिछले ढाई वर्ष से कठपुतली नचाने वाले बड़े राजनैतिक दल कर रहे थे। वास्ताव में बागियों का यह समूह जितना बना नहीं था, उससे अधिक पैदा किया था। मध्यप्रदेश की राजनीति में जो प्रयोग सफल रहा था, वही प्रयोग महाराष्ट्र की जमीन पर एक बार पुनः असफल सिद्ध होता दिख रहा है। मध्यप्रदेश में तो प्रवर्तन निदेशालय का भय दिखाकर कांग्रेस के बड़े नेताओं को आंतककित किया गया और सिंधिया को उपेक्षा का शिकार बताकर विभाजन के लिए तैयार किया गया। पर महाराष्ट्र में एकनाथ शिन्दे न सिंधिया के बराबर नेता थे और नाही अनुभव और बुद्धि के आधार पर पूरे महाराष्ट्र में प्रभाव रखने वाले नेता। वास्ताव में बगावत करने वाले महाराष्ट्र के नेताओं की हेसियत केवल बाला साहेब ठाकरे और शिव सेना के नाम पर ठहर जाती है। बहुत छोटे काम धन्धों में लगे हुए लोगों को शिव सेना ने जमीन से उठा कर केवल इस आधार पर शीर्ष पर पहुंचा दिया कि वे शिव सेना के वफादार सिद्ध होंगे।
बाला साहेब ठाकरे की राजनीति पर अध्ययन करने वाले विचारकों का मानना है कि हिन्दुत्व की राजनीति को चलाने के लिए बाला साहेब ठाकरे ने समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों को नेता के रूप में नेतृत्व सौपने की पहली बार पहल की थी। इनमें से ही कई नेता शिव सेना में कार्य करने के दौरान बाला साहेब के प्रिय बन चुके थे। जिसका लाभ शिव सेना को तोड़ने के लिए कई बार उठाया, अलग-अलग हुये इन प्रयासों में जिन नेताओं ने बागडोर संभाल कर विद्रोह किया वे भले ही केन्द्र में मंत्री बन गये हो, पर उनकी राजनैतिक प्रतिष्ठा महाराष्ट्र ही नहीं देश की राजनीति में भी पूरी तरह धूमिल हो गई।
शिवसेना वास्तव में पिछले ढाई साल के दौरान हिन्दू के ऐजेंडे को स्थानीय तौर पर चलाने के साथ-साथ अपने राष्ट्रीय स्वरूप का विकास करना चाहती थी। जिसके लिए जरूरी था कि धर्म आधारित राजनीति के अतिरिक्त आम लोगों की जरूरतों से जुड़े हुये मुद्दो को भी समझने और हल करने की कोशिश की जाय। ढाई साल में महाराष्ट्र की महा आभारी सरकार ने समाज के सभी वर्गो के लिए कोरोना महाकाल और अन्य स्थितियों में प्रशंसनीय काम किया। जिसे विश्व स्तर पर पहचान मिली यह सब करते हुए शिव सेना ने कभी भी हिन्दुत्व के ऐजेंडे को पीछे नहीं छोड़ा। और नाही समाज में रहने वाले अन्य वर्गो को यह आभास होने दिया कि शासक दल एक धर्म विशेष के संरक्षण के लिए कार्य कर रहा है। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि बिना सहारे के एकनाथ शिन्दे के साथे गये हुए बागी मुंबई वापस लौटेंगे और अपनी गलतियों के लिए क्षमा याचना का प्रयास करेंगे।