सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): स्थानीय संस्थाओं के चुनाव की प्रक्रिया होने के बाद एक नई बहस राजनीति के क्षेत्र में प्रारंभ हो गई है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों के विपरीत परिणाम आने पर भविष्य का राजनैतिक स्वरूप क्या होगा। क्या इन चुनाव के कारण वर्ष 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में कोई ऐसा करेगा।
भाजपा के पक्ष के लोगों का मानना है कि स्थानीय संस्थाओं के चुनाव लगभग दो दशक में भाजपा की मतदाओं से करीबी का एहसास करायेंगे। विभिन्न सार्वजनिक मंचों से मुख्यमंत्री और मंत्रियों द्वारा किये गये वायदों की असिलियत का आम आदमी का होने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करेंगे। इतना ही नही अलग-अलग क्षेत्र में होने वाले चुनाव परिणाम क्षेत्रीय नेताओं की जमीनी पकड़ को स्पष्ट करेंगे। इन चुनाव परिणामों से भाजपा यह मूल्यांकन कर सकेगी कि उसका कार्यकर्ता अपने क्षेत्र में कितना सक्षम है। इतना ही नहीं इन संस्थाओं के चुनाव में चुकी संघ का हस्तक्षेप कम से कम होगा। तो यह भी ज्ञात हो जायेगा कि बिना संघ के राजनैतिक दल भाजपा की वास्तविक पकड़ आम मतदाता पर कितनी है। भाजपा के लिए यह वास्तव में यह चुनाव राजनैतिक दल के रूप में अपने स्वतंत्र अस्तित्व का एक परिक्षण होगा। पार्टी के संगठन और सत्ता पक्ष द्वारा समय-समय पर किये जाने वाले दावों की कलई भी इस चुनाव में खुलेगी। साथ ही संगठन को एक जुट रखने की अब तक की गई कोशिश का वास्तविक मूल्यांकन भी इस चुनाव के माध्यम से हो जायेगा।
दूसरी और कांग्रेस में यह तय होना है कि उसका कार्यकर्ता कितनी ईमानदारी से पार्टी के साथ खड़ा हुआ है और कितनी शक्ति पार्टी के प्रति लगा सकता है। कांग्रेस प्रदेश स्तर पर दोहरे नेतृत्व के भरोसे ही चुनाव में उतरी हुई है। एक नेतृत्व प्रबंधन देख रहा है तो दूसरा नेतृत्व मैदानी गतिविधियों को संचालित कर रहा है। यह भी पता लगेगा कि वास्तव में दोहरे नेतृत्व का जो सिद्धांत पार्टी के कितने प्रतिशत नेताओं और कार्यकताओं के स्वीकार है। स्थानीय संस्थाओं के चुनाव के पूर्व कांग्रेस ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया है जिससे राज्य के अन्य छोटे राजनैतिक दल स्वयं सेव संगठन या स्वतंत्र राजनैतिक विचारक पार्टी के साथ जुड़े। इसका प्रमुख कारण अभी तक यह माना गया है कि कांग्रेस के पूराने स्वरूप को बदलकर एक नई संस्कृति का विकास किया जाना है। आने वाले वर्ष 2029 तक के चुनाव तक मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार्य एक युवा चेहरे को खड़ा किया जाना है, जिसके नाम और उसकी गतिविधि अभी से यांत्रिक बनाई जा चुकी है। कांग्रेस इन चुनावों से यह परीक्षित करेगी कि प्रबंधन की शैली में क्या इतना दम है कि बिना जन आंदोलन आधारित व्यक्तियों या संगठनों के कांग्रेस अपने वोट मशीनों में डलवा सकें।
कांग्रेस कार्यकर्ता इन चुनाव के बाद कितना संगठित रहेगा उसके आसार नजर आने लगे है। अभी से ही कार्यकर्ताओं के मध्य पार्टी से अलग हटकर अपने निर्दलीय अस्तित्व के प्रति रूझान बढ़ है, ऐसा केवल कांग्रेस में ही हो रहा है यह सत्य नहीं माना जा सकता। परंतु इसका प्रतिशत भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस में कही ज्यादा है। भविष्य की राजनीति के लिए कांग्रेस का इन चुनाव पर कोई ठोस मूल्यांकन नहीं है, कांग्रेस इन चुनाव को विधानसभा से अलग चुनाव मान कर लड़ रही है।
राज्य के अन्य राजनैतिक छोटे दल अभी जोर अजमाइश के दौर में है जिन्हे शायद उम्मीद थी की भाजपा के विरुद्ध वे अपना अस्तित्व कांग्रेस के साथ मिलकर बना सकेंगे उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। इसके बावजद मतो के गणित में ये छोटे-छोटे राजनैतिक दल और जातिगत आधार पर खडे हुए निर्दलीय प्रत्याशी इन चुनाव में अपना बड़ा असर डाल सकते है। कुछ नही तो वे कुछ क्षेत्रों के चुनाव परिणामों का बदलने में बड़ी भूमिका निभा सकते है।