आठ वर्षो में देश का स्वाभिमान - पुनः स्थापित हुआ
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): पिछले आठ सालों में इस देश को ऐसा क्या मिला, जो आज़ादी के बाद के सात दशक के इतिहास में हासिल न हो सका। स्वतंत्रता के बाद भारत को विकास की ओर ले जाने वाला बुनियादी ढांचा कितना सही था और कितना गलत, इसकी समीक्षा 70 सालों के दौरान कभी नहीं कि गई। यह मान लिया गया कि भारत के नवनिर्माण की जो राह बनी थी, उसे ही विकास की धारा मानकर निरन्तर मजबूत बनाये रखना है।
पिछले आठ सालों के दौरान इन पुरानी अवधारणाओं को तोड़ा गया, इनकी समीक्षा की गई और विकास को अवरूद्ध न करते हुए नई तकनिकी और प्रयोगों के दम पर तेजी से आगे ले जाने की कोशिश की गई। आठ वर्ष का समय किसी भी बिगड़ी हुई धारा को सुधारने के लिए प्रयाप्त नहीं कहा जा सकता। इन परिस्थितियों में जब पुरानी धारा के आवेग को बिना रोके उनमें सुधार और नई धाराओं का प्रादुलभाव किया जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आठ वर्ष पूर्व जिन प्रयोगों को भारत में प्रारंभ किया वे प्रथम दृष्टि में स्वीकार्य नहीं माने गये। यही कारण था कि इन प्रयोगों के दीर्घकालीक की समीक्षा के स्थान पर इन्हें घातक करार दे दिया गया।
समय के साथ स्थितियों में परिवर्तन आया है, जो भारत आठ वर्ष पूर्व विश्व के सामने एक अपरिचित अभिव्यक्ति था। उसे ना सिर्फ पहचान मिली बल्कि नये पंखों के भरोसे उसने उड़ान भरना भी सीख लिया।
आठ वर्ष की अवधि में यदि मोदी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि पर गौर न किया जाए तो वह बैमानी होगा। अंग्रेजों के शासनकाल की पूर्व अवधि से क्रमशः भारत में अपनी पहचान खो दी थी, आत्मविश्वास के स्तर पर हम विश्व में सांप और बंदर नचाने वाले देशों के रूप में अपनी पहचान रखते थे। विश्व का कोई भी देश इतनी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद हमारी आर्थिक अर्थ व्यवस्था को महत्व नहीं देता था। दूसरे अर्थो में कहे तो समूचा विश्व भारत का उपयोग करता था, पर भारत को अपने समकक्ष पहुंचने देना नहीं चाहता था। नागरिक चेतना केवल अपने स्वार्थपूर्ती पर आकर ठहर जाती थी, और राष्ट्रहित नागरिक के व्यक्तिगतहित के साथ जुड़ जाता था। परिणाम यह होता था कि कोई राजनैतिक दल गरीबी हटाओं का नारा देकर देश में अपनी सरकार दशकों तक चलाने में सक्षम हो जाता था।
आठ वर्ष पूर्व चंद नाम ही ऐसे होते थे, जिन्हें इस देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले नेताओं के रूप में जाना जाता था। यह कैसे भूला जा सकता है कि क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद की मां अपने पूरे जीवन काल में आज़ादी के बाद भी डकैत की मां के रूप में अपने जीवन यापन के लिए निम्नतम स्तर का संघर्ष करती रही। देश में इन चंद जमीदारों को आज़ादी के लिए नेता मान कर उनकी महिमा मंडित की गई। पर उन अज्ञात और ज्ञात संघर्षशील व्यक्तियों को स्वाधीनता के युद्ध में एक सेनानी तक की जगह नहीं दी गई। यह बात अलग है कि स्वाधीनता संग्राम सेनानी को आजीवन पेंशन के नाम पर राशि ताम्र पत्र के साथ दी गई थी। पिछले आठ वर्षो में समाज के विभिन्न वर्गो से आज़ादी के संघर्ष की वास्तविक गाधा को निकाला गया, तो वर्षो से चला आ रहा एक बड़ा झूठ समूचे भारत के सामने आकर खड़ा हो गया, कि चंद लोगों ने नहीं समूचे भारत ने अलग-अलग प्रेरणाओं को माध्यम से दो सौ वर्ष की आज़ादी के संघर्ष को अपना सब कुछ खो कर जिया था।
आठ वर्षो में भारत को स्वाभिमान दिया है, अपने गुजरे हुए कल की वास्तविक पहचान दी है और भविष्य में इस विश्व में अपनी पताखा फैलाने के लिए एक मजबूत आधार दिया है। नई राह पर भारत क्रमशः एक नई इबारत लिखेगा इसमे संदेह नहीं होना चाहिए।