मतदाता के पक्ष में नहीं है - कांग्रेस या भाजपा
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश में राजनीति के विचार को और चिंतकों का बदलती हुई परिस्थितियों पर गहन परिक्षण चल रहा है। विभिन्न तथ्यों के अन्वेषन के उपरांत दो दलीय शासन प्रणाली पर आधारित मध्यप्रदेश की राजनीति को बारीकी से और तथ्यों के आधार पर परीक्षित किया जा रहा है। अलग-अलग समूहों में राजनीति को लेकर चलने वाली चर्चाओं और भविष्य में पड़ने वाले उनके प्रभावों को भी इतिहास की कसौटी में तोलने की कोशिश की जा रही है।
अब तक हुई चर्चाओं के अनुसार मध्यप्रदेश जैसे राज्य जहां समूचे भारत की विभिदताएं छोटे समूह में उपस्थित है। एतिहासिक तथ्यों और आकड़ों से अलग कोई बड़े परिवर्तन की संभावना नहीं नजर आती है। चर्चाओं के दौरान यह भी पाया गया कि मध्यप्रदेश की सरकारों का गठन या राजनैतिक दलों के बहुमत के निर्धारण के मूल में जिस मतदाता का प्रभाव है वह अस्थिर, दबा और कुचला हुआ या अन्य उपेक्षित जाति समूह का प्रतिनिधि है। भावना प्रधान मतों के संग्रह में वैचारिक अस्थिरता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बहुत कम अवसर ऐसे पाये जाते है जब मध्यप्रदेश का मतदाता नेतृत्व के किसी चेहरे या उसके कृत्यों से प्रभावित होकर मतदान करता है।
सर्वप्रथम कांग्रेस के संदर्भ में देखे तो चिंतन से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान में कांग्रेस के पास इस सहज सरल मतदाता के लिए कोई चेहरा नेतृत्व के रूप में सामने नहीं है। ऐसा कोई चित्र भी नहीं है जिस पर मतदाता भरोसा कर सके। इन स्थितियों में जमीनी कार्यकर्ताओं की सक्रियता और उनका आम जनमानस से जुड़ाव केवल कांग्रेस के पक्ष मे माहोल बना सकता है। कांग्रेस के पास कार्यकर्ता है नहीं और कांग्रेस से अधीक कांग्रेस के नेताओं के जुड़ाव अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धी में है अर्थात कांग्रेस को अहंकार के आकाश से निचे उतर कर जमीन पर आना होगा जो अब उसके लिए संभव नहीं है।
दूसरी और भारतीय जनता पार्टी पिछले लगभग दो दशक से शासन में रहते हुए अब चारित्रिक रूप से शासक बन गई है। ऊंची आवाज में माइक के सामने मुक्के पटक कर दावेदारी करने से इस संवेदनशील मतदाता पर कोई प्रभाव डाला जा सकेगा वह संभव नहीं है। कहावत है फल से लदे हुए वृक्ष का झुकना जरूरी होता है, संभवतः यह प्रकृति द्वारा बनाये गये विनम्रता के सिद्धांत का उदाहरण है। बीस वर्ष की सत्ता के बाद अब भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लिए एक दौड़ शुरू हो गई है, जिस पर आने वाले दिनों में न संघ का और नाही संगठन का कोई नियंत्रण रहेगा। इसका प्रमुख कारण विभिन्न नेताओं से जुड़े हुए कल तक अनुशासित रहे कार्यकर्ताओं का महत्वकांशा के कारण अनुशासनहीन हो जाना होगा।
उपरोक्त दोनों ही दल राजनीति की परिभाषा और सिद्धांतों में विश्वास नहीं रखते या यह कहे कि दोनों ही दलों के नेता क्षणिक स्वार्थ पूर्ति के लिए राज्य को पुनः भुलावे की गलत फहमी पाले अपनी भविष्य की योजनाओं को कागजी तौर पर पूरा कर रहे है। कांग्रेस के पास न कोई योजना है और नाही कोई लक्ष्य है तो केवल अहंकारपूर्ण दावे और इन दावों की बुनियान कार्यकर्ताओं के बिना खोखली है। दूसरी और सत्ताधारी भाजपा संघ के सिद्धंतों से अलग हटकर अब राजनीति सेवा के लिए नहीं व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कर रही है। जहां से भी आम मतदाता को और वह विशेष कर मध्यप्रदेश के मतदाता को कुछ भी मिल पाने की संभावना नहीं है। राजनीति का चिंतन लगातार जारी है और यही चिंतन चुनाव के काफी पूर्व भविष्य की धारा का भी निर्धारण कर देगा।