ब्राम्हण आज भी स्वच्छन्द और स्वतंत्र है-वोट बैंक नहीं
अक्षय तृतीय पर विशेष
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मानव इतिहास की सबसे पुरातन कथाएं जातक कथाएं माना जाती है। सदियों पूर्व मानव संस्कृति विकास के साथ जब सामाजिक व्यवस्थाओं का उदय हुआ। जंगल क्रमशः गांव में और गांव कस्बों में परिवर्तित होने लगे। शासक के रूप में राजा की मान्यता स्थापित हो गई तब इन जातक कथाओं ने जन्म लिया।
इतिहास उठाकर देख लीजिए कई जातक कथाओं की शुरूआत ही इन शब्दों से होती है एक गांव में एक गरीब ब्राम्हण रहता था। भारत के इतिहास में ही नहीं विश्व के इतिहस में कथाओं को तत्कालीन, सामाजिक परिदृष्य का चित्रण माना जाता था। कथाएं जन्म ही तब लेती है जब समकालीन इतिहास में उस तरह की कोई घटना तथा लेखक को परिस्थितियों की व्याख्या करने के लिए और उससे मिली हुई सीख को लिखकर बाटनें के लिए बाध्य कर देती है, कथा का प्रारम्भ है एक गांव में एक गरीब ब्राम्हण रहता था, यह तय हो गया कि ब्राम्हण एक लम्बे समय से गरीब ही रहा। पर कथा जैसे-जैसे आगे बढ़ती है आभास होता है कि एक धोती पहन कर मंदिर के दरवाजे पर बैठा हुआ पंडित या ब्राहम्ण पूरे गांव को मार्ग दर्शन देता है। यहा तक की गांव का प्रमुख भी उसके सामने श्रद्धा से शीश झुका कर अपने ग्रह गोचरों की स्थिति को जानने के लिए प्रयत्नशील होता है।
एक गांव में एक गरीब ब्राम्हण जरूर रहता है, पर वह उस गांव का केन्द्र बिन्दु है। वह गांव में रहने वाले सबसे अमीर जमीदार से लेकर समाज के सबसे छोटे व्यक्ति के मध्य एक सेतु का काम करता है। वह जमीदार को प्रेरित करता है कि जमीदार समाज के कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए कुछ काम करें। जिससे उसे और उसके परिवार को पुण्य मिलेगा और उसके पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलेगी। श्रीराम चरित मानस भयबीन होय न प्रित लिख कर स्वयं गोस्वामी तुलसीदास ने इस गांव के ब्राम्हण के क्रियाकलापों को एक मार्गदर्शन दे दिया है। दक्षिणा में मिले हुए चंद पैसे और प्रवचन या कथा के उपरांत मिले अन्य काम के भरोसे यह ब्राम्हण गांव के सामाजिक वातावरण को सद्भावनापूर्ण बनाये रखने के लिए निरन्तर कोशिश करता है। गांव का यह ब्राम्हण अहंकारी नहीं है और समाज के किसी भी वर्ग के प्रति दूरभावना से पीड़ित नहीं है। इसकी संवेदना आम आदमी के दुख दर्द से जुड़ी हुई है और यह सम्पूर्ण ग्राम विकास के लिए एकता की वह धुरी है जो उस गांव को पूरा होने में मदद करती है। कई विवादास्पद मामलों में तो गांव के पंडित का अंतिम कथन ही निर्णय मान लिया जाता है।
व्यवस्थाएं बदल गई आधुनिक युग में बदलते संदर्भो के साथ समाज भी बदल चुका है पर बहुसंख्यक ब्राम्हण आज भी जातक कथा के प्रारंभ के शब्दों से अलग नहीं हो पाया है एक गांव में एक गरीब ब्राम्हण रहता था। अहंकार की दृष्टि से देखे तो बदलते संदर्भो में कुछ परिवर्तन अवश्य आया है, पर आज भी समाज की यह प्रजाति राष्ट्र निर्माण के लिए सामुदायिक विकास के सिद्धांत को ही बल देती है। समाज के सभी वर्गो में अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति ब्राम्हणों में आज भी है। दुख इस बात का है कि अन्य समाजों की तरह ब्राहम्ण समाज को भी अब वोट बैंक के रूप में पहचाना जाने लगा है। ब्राम्हण धारा को बदल सकता है इसमें संदेह नहीं, उससे तर्को के मानवीय पक्षों को काट पाना किसी भी शासन के लिए संभव नहीं है। इसके बावजूद समाज में आज ब्राहम्ण वर्ग की उपेक्षा इस देश के लिए चिंता का विषय हो सकती है। ब्रम्हणों का चिंतन ऋषि कालीन परम्परा की देन है। वे कल भी स्वच्छन्द और स्वतंत्र थे और आज भी स्वच्छन्द और स्वतंत्र है। ब्राम्हण याचक नहीं हो सकता यह शासक को समझना पडे़गा और यह भी मानना पड़ेगा कि परशुराम जैसा क्रोध आज भी ब्राम्हण वर्ग में उतना ही सक्रिय है जितना आदिकाल में था। अक्षय तृतीय का मौके पर राजनीति ब्राम्हणों के योगदान का स्मरण करें पर यह न भूल जाए कि समाज, देश और विश्व के लिए ब्राम्हणों के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।