पांच किलों मुफ्त राशन - दया है या भीख
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): भारत में कभी जन कल्याणकारी सरकारें शासन करती थी, जो आम भारतीय पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ और उससे होने वाली जीवन-यापन संबंधी परेशानियों को हल्का करने के लिए अपने क्रियाकलापों को संचालित करती थी। पिछले 7-8 साल के दौरान यह प्रक्रिया बदल गई सी लगती है। अब आज की और आने वाली सरकारें आम व्यक्ति के खून की अंतिम बूंद तक राष्ट्रवाद और धर्म कल्याण विकास और अंतरराष्ट्रीय छवि जैसे मुद्दों पर चूस लेने के लिए प्रयासरत है और रहेंगी।
भारत का जनतांत्रिक स्वरूप अब लोक कल्याण की भावना से अलग हट चुका है। राजनैतिक दल अपने कल्याण की योजनाओं को कुछ इस तरह संचालित करने लगे है कि भक्त बना हुआ हर अंधा भारतीय एक नशे में झूम रहा है। उसका जीवन तबाह हो रहा है, बच्चे बेरोजगारी में अपराधी बन रहे है। महंगाई प्रत्येक क्षण उसके परिवार के अधिकार को सिमित करती जा रही है। फिर भी मतवालों की तरह नशे में झूमते हुए वो अज्ञात की और बड़ता जा रहा है। ये नशा कितना घातक है जिसने 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त अनाज मिलने के नाम भिखारी बना दिया। आम आदमी की इतनी क्षमता शायद ही बची हो कि वह अपने परिवार को पालने के लिए पांच किलो मुफ्त अनाज की जगह पांच किलों सस्ता अनाज खरीद कर अपने पुरुषार्थ के दम पर घर चला सकें। प्रकृति का नियम है एक कुत्ते को प्रतिदिन एक रोटी डालते जाइये उसकी आवश्यकताएं कुछ अंशों में पूरी करते रहिये वो हमेशा आपकी बताई हुई दिशा में ही मुह करके भोकेगा।
भारत का आम जन मानस अपंग होता जा रहा है। काम के आभाव में और परिश्रम से दूर उसकी शारीरिका शक्ति समाप्त होती जा रही है। एक दूसरे से न मिल पाने और साथ काम न कर पाने की बाध्यता ने जिस संवादहीनता को जन्म दिया है उसमें आम व्यक्ति के मानसिक विकास पर भी गलत प्रभाव डाला है। पांच किलो मुफ्त का अनाज भारतीयों को विकलांगता की और ले जा रहा है जिसके आगे बनी हुई सीढ़िया उसे पुनः उद्योगिक समुहों और बहु राष्ट्रीय कम्पनियों का गुलाम बना देगी। 200 साल के संघर्ष से भारत ने जिन गुलामी की जंजीरों को तोड़ा था कमोवेश हम पुनः उसी रास्ते की और अग्रसर है। विभिन्न प्राइवेट टीवी चेनल, समाचार पत्र माध्यम और अन्य मिडिया लगातार हमें प्रेरित कर रहे है कि हम प्रतिदिन समूचे विश्व में पैदा होने वाली समस्याओं और होने वाली घटनाओं के चिन्तन में अपना समय बर्बाद करे खाने के लिए पांच किलो मुफ्त अनाज देने की जिम्मेवारी सरकार ले रही है। अपंगता के लिए किया जा रहा यह राष्ट्रीय प्रयास चुनाव परिणामों में मतदाता की घटती हुई सोच और उसके लापरवाह रवैया को स्पष्ट कर देता है।
पांच किलो जो अनाज जो बाटा जा रहा है उसके लिए पेट्रोल और डीजन की किमतों को चार दिनों के अंदर बार-बार बढ़ा कर चार रुपए तक मंहगा कर दिया जाता है। ये कैसी संवेदनशीलता है यह समझ पाना मुश्किल है। हम उस दिशा में बढ़ रहे है जहां कल कोई अंबानी या अडानी पूरे देश में इसी तरह कुछ किलो अनाज नशीली दवाओं के रूप में एक वर्ष तक लगातार सप्लाई करेगा और हमारा भगवान बन कर हमारे सरों पर बैठ अपनी नितियों को लागु करेगा। गुलामी की सीढ़िया सात वर्ष से लगातार इसी तरह प्रतिदिन तैयार की जा रही है, इसकी एक निश्चित योजना है और समय सीमा भी। लोकतंत्र में सरकारे आम व्यक्ति के द्वारा चुनी जाती है पर उसी आम व्यक्ति को भुलावें में डाल पाना राजनैतिक दलों के लए अब मुश्किल नहीं रह गया है। किस पार्टी का गठबंधन किस विचारधारा के साथ किस लिए है उसके वायदों पर कितना भरोसा किया जाय यह समझ पाना मुश्किल है। राष्ट्रवाद अब धार्मिक विद्वेश और जातिगत युद्ध में परिवर्तित होता जा रहा है। आने वाले समय में द्वितीय श्रेणी या तृतीय श्रेणी के नागरिको की परिभाषा का यदि निर्माण हो जाए तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पूरे देश में पुलिस यदि जातिगत आधार पर बाट कर बनायी जाने लगे तो इसे कोई परिवर्तन नहीं मानना चाहिए। आपसी मेल-मलाप और परस्पर बातचीत के माध्यमों को इतना मंहगा कर दिया जाए कि आप घर से बाहर सांस लेने में भी कठिनाई महसूस करने लगे तो भी आपको पांच किलो मुफ्त अनाज के भरोसे जीवन जीने के काबिल एक राष्ट्रवादी विचारधारा के साथ बहुसंख्य धार्मिक आचरण करते हुए जिन्दा रहना आना चाहिए। भारत का भविष्य संभवतः इसी और जा रहा है।