सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
भारतीय राजनीति में राजनैतिक सोच रखने वाले नेताओं की संख्या में किस तरह गिरावट आ रही है इसका प्रमाण पूरे देश में स्पष्ट नज़र आ रहा है। राजनैतिक तंत्र में अब लाल फीताशाही का असर स्पष्ट देखने को मिलता है। नौकरी छोड़ कर आये हुये या अपनी सेवा पूर्ण कर चुके ब्यूरोक्रेट भारतीय राजनीति में राजनैतिक दलों की तेजी से पसंद बनते जा रहे है। अलग-अलग राजनैतिक गुटों में प्रभावशाली नेताओं ने लाल फीताशाही के इन पालतु अफसरों को अब जन प्रतिनिधि का सम्मान देना शुरू कर दिया है। यह स्पष्ट संकेत है कि भारतीय नेताओं का सोचने-समझने और समस्याओं का हल निकालने का नजरिया संकुचित हो चुका है। 
ऐसा नहीं है कि देश के इतिहास में पहले लाल फीताशाही प्रभावहीन थी। इससे उलट सर्वकालीक इतिहास यही बताता है कि दिशा देने का काम लाल फीताशाही ने किया, उसके जनतांत्रिक प्रभाव को राजनीतिज्ञों ने समझा। इसके बाद ही कोई भी कार्यक्रम प्रभावशाली योजनाओं के रूप में देश भर के लाल फीताशाहों को क्रियान्वन के लिए सौपा गया। परंतु क्रियान्वित हो रहे कार्यक्रम की समीक्षा उसका मूल्यांकन राजनीतिज्ञों के अधिकार क्षेत्रों में ही माना गया है। आम जनता से मिलने वाली प्रतिक्रिया कार्यक्रम की सफलता या असफलता का आकलन करती रही है। अफसारशाही ने वर्तमान में इन राजनैताओं को कुछ इस तरह अपने चंगुल में फसा लिया है कि ये लालफीताशाह ही अब राजनीतिज्ञों के रूप में देश में प्रभावशाली हो गये है।
बड़े-बड़े राजनैतिक दलों से लेकर सभी दलों में बडे़ माने जाने वाली नेताओं की निष्ठा अपने दल के साथियों से कई अधिक अफसरों के प्रति अधिक रही है। दूसरी और देश की लोकतंत्र की बदलती परिभाषा में बड़े उद्योगिक घरानों और राजनैताओं की स्वार्थ सिद्धी के लिये सबसे उपयुक्त माध्यम यह अफसरशाह ही हो सकते है। आज हालात यह है कि किसी एक राज्य के अपने विश्वसनीय अफसर को किसी दूसरे राज्य में उपमुख्यमंत्री तक बना देने की चाह राजनैताओं में पैदा हो गई है पूरा लोकतांत्रिक ढ़ाचा बदला जा रहा है। इस दौर में लाल फीताशाही एक बेलगाम घोड़े की तरह कार्पोरेट घरानों के माध्यम से राजनीति पर अवैध कब्जा करती जा रही है। बदलती स्थितियों में इस बात का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब राजनैतिक दल औद्योगिक घरानों के गुलाम होंगे और लाल फीताशाही उनके इशारों पर व्यक्तिगत लाभ के लिये नये-नये आयाम ढूंडेगी तब बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा लिखा गया संविधान तार-तार होकर बिखर जायेगा। 
कभी किसी विचारक या कवि ने अपनी अभिव्यक्ति में डाकू और राजनेताओं को एक दूसरे के समकक्ष खड़ा किया था। आज यही स्थिति लाल फीताशाही और राजनेताओं के मध्य एक रूपता दिखाते हुए सामने आ रही है। मध्यप्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्व. गोविन्द नारायण सिंह ने एक बार कहा था कि ब्यूरोक्रेसी बेलगाम घोड़े की तरह होती है, उस पर सवार होने वाले राजनेता में इतना साहस होना चाहिए कि वह उस घोड़े को सही दिशा में अपने चाबुक के दम पर लाकर न सिर्फ खड़ा कर सके बल्कि उसकी गति और दिशा पर भी नियंत्रण रख सकें।
आज राजनेता में दूरदृष्टि के आभाव है और कई राजनेता तो स्वयं औद्योगिक घरानों की दलाली करते हुए अपने व्यक्तिगत जीवन को अधीक आराम देह बना के लिए ब्यूरोक्रेसी के इन घोड़ों को सय्यमित करना न जानता है और न कर सकते है। धीरे-धीरे यह छूत की बीमारी आगे बड़ रही है और वह समय दूर नहीं है जब देश और प्रदेशों के सर्वोच्च पदों पर लाल फीताशाही का झंडा लहरायेगा और राजनीतिज्ञ कहे जाने वाले जमात के लोग इनसे मिली भिक्षा पर अपना जीवन यापन करेंगे।