सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
किसी भी निर्वाचन प्रक्रिया के समाप्त होने के बाद अब सार्वजनिक तौर पर यह खतरा मंडराने लगा है कि चुने हुए प्रतिनिधि कही विपक्षी दल के हाथ में अपनी कीमत लगाकर बिक न जाए। भारतीय लोकतंत्र का यह बदनुमा दाग है जिसे रोक पाने में दल बदल विरोधी कानून जैसे प्रयास में सफल नहीं हुए। पांच राज्यों में हुए चुनाव के बाद उत्तराचंल और गोवा में यह खतरा मंडरा रहा है। विभिन्न राजनैतिक दलों के धनपशु गिद्धों की भांति विपक्षी खेमे के संभवित जितने वाले उम्मीदवारों पर निगाह लगाये बैठे है।
राजनीति की बदलती हुई परिभाषा में अब सबसे महत्वपूर्ण हो गया है कि जनमत मिलने के बावजूद पार्टियां अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को या किसी अज्ञात स्थान पर विशेष विमान से ले जाए या उन पर 24 घंटे पहरेदारी की व्यवस्था करें। दूसरे शब्दों में कहे तो जनप्रतिनिधियों की मंडी शुरू ही तब होती है जब निर्वाचन के नतीजे सामने आ जाते है। बेशर्मो की तरह विस्थापित राजनैतिक दल भी विपक्षी दलों के जनप्रतिनिधियों को लुभाने के लिए खुले आम इसलिए खरीद-फारोद का यह कारोबार अनैतिक होते हुए भी अब व्यवसायिक हो चला है।
होता कुछ ऐसा है कि मिली-जुली सरकार बनने की स्थिति में बड़ी संख्या मे देश भर के राजनैतिक दलाल संबंधित क्षेत्र मे विजय की संभावना वाले प्रत्याशियों के आस-पास पैसे का मकड़ जाल बुनने लगते है। इस सौदे-बाजी से जहां जनप्रतिनिधि को फायदा होता है वहां सक्रिय दलाल भी बिचोलिये के रूप में एक बड़ी राशी अर्जित करने में सफल रहते है। यह संकेत देता है कि निर्वाचन के बाद साम्मानीय और माननीय का दर्जा प्राप्त करने वाले जनप्रतिनिधियों कि निष्ठा अपने नेता और अपने दल के प्रति कितनी गहरी है। इस मंडी में सब कुछ बिकाऊ है खरीदार परिस्थितियों के अनुसार कीमत देने के लिए तैयार है। बस किसी तरह जोड़-तोड़ करके एक सरकार खड़ी करनी है, उसके बाद इस सौदे में हुए करोड़ों रुपये नुकसान की भरपाई भी कुछ समय में कर ली जाती है।
सौदे-बाजी के इस कारोबार में अधिकतर पैसा उद्योगपतियों या धन पशुओं के माध्यम से लगाया जाता है। इस पैसे की जांच और लेन देन को रोकने की दिशा में न कोई कानून है और ना हीं कोई मार्ग दर्शक सिद्धांत है जो ताकतवर होता है भैस अक्सर वही ले जाता है। इस तरह मिली-जुली सरकारें बनाने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद प्रशासन और समाज सुधार के कार्यक्रमों में समझौते की एक प्रक्रिया होती है जिसका पालन करते हुए जोड़-तोड़ से बनी हुई सरकार अपने पांच वर्ष का कार्यकाल अक्सर पूरा कर लेती है। कुल मिलाकर संकट केवल उतनी देर का होता है जब चुनाव परिणाम आएं और खुली मंडी में सही खरीद के बाद एक सरकार जैसी चीज का निर्माण हो जाए।
यह सिलसिला आजादी के बाद से ही आंशिक रूप से प्रारंभ हो चुका था परंतु पिछले देढ़ दशक के दौरान जिस तरह यह मंडियां आयोजित की जाने लगी है वैसे दृष्य कल्पना से परे थे। पांच राज्यों के चुनाव के बाद भी इस मंडी का आयोजन कुछ राज्यों में होगा परिणाम निर्वाचन के बाद आए रिजल्ट से अलग हट कर एक अकल्पनीय सरकार का निर्माण ही होगा।