पांच राज्यों के चुनाव-बदलती संभावनाओं का संकेत
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): पांच राज्यों के चुनाव के सम्पन्न होने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय मतदाता की मानसिकता में परिवर्तन के संकेत अस्थायी प्रयासों से नहीं लाया जा सकता। उसके लिए यह कि कृतिम रूप से वातावरण तैयार करना जरूरी होगा या मतदाताओं के बीच रह कर निरन्तर उनकी समस्याओं और दैनिक गतिविधियों से जुड़ा रहना होगा। हवाई बातों और कोरे वादों से चुनाव जीता जा सकता है पर उसके लिए बहुत अधिक धन-बल और शक्ति का उपयोग करना अनिवार्य है।
पांच राज्यों में चुनाव प्रक्रिया समाप्त होने के बाद परिणामों के अनुमान पर आए टीवी चैनलों के एक्जिट पोल पर भरोसा करें या न करें एक हवा का संकेत जरूर मिलता है। जिसने भी प्रचार अभियान और राजनैतिक दलों की गतिविधियों पर निर्वाचन काल मे गहराई से अध्ययन किया हो उसे यह स्पष्ट संकेत मिल जाता है कि मतदाता अपने अधिकारों के प्रति और अपनी समस्याओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील हुआ है। बडे़-बड़े चेहरे पोस्टर और प्रचार सामग्री अब आम मतदाताओं को इतना प्रभावित नहीं कर पाती जितना सामने वाले उम्मीदवार के प्रति उसका विश्वास या भरोसा। कुल मिलकर दूसरे शब्दों में कहें तो उम्मीदवार अनुभवी हो यह जरूरी नही रहा, युवा हो क्षेत्र के साथ उसका निरंतर सम्पर्क हो और मतदाता के साथ खड़े रहने की उसकी हिम्मत हो।
इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह जरूरी है कि राजनैतिक दल अपने उम्मीदवार चयन और निरंतर चलने वाली राजनैतिक प्रक्रिया में बुनियादी तौर पर भारी परिवर्तन करें। बड़े-बड़े नामों और सपनों के भरोसे किसी का मत प्राप्त करना अब असंभव हो जायेगा। चुनाव जीतने का दूसरा मंत्र जो स्पष्ट होता है उसमें भारी संख्या में चुनाव के पूर्व बड़े नेताओं की फौज के साथ अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों को भी बड़े से बड़ा बना कर प्रचारित करना गरीब मतदाता के सर पर अपनी सरकार द्वारा किये गये कर्तव्य निर्वाहन को एहसान के रूप में बोझ बना देना और मतदाता को यह एहसास दिला देना कि उसके प्रत्याशी के पराजीत होने से एक घना अंधकार छा जायेगा क्योकि उसके दल के अलावा बाकी सभी दल राष्ट्र विरोधी और आंतकवादी है।
मानवीय दर्शन में भय को सबसे बड़ा हथियार माना गया है। आम व्यक्ति अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के साथ एक शांति पूर्ण जीवन जीना चाहता है। राजनैतिक दल या नेता जब आंतक का वातावरण पैदा करते है तो भय के कारण मतदाता की विचारधारा में भी परिवर्तन आता है यह इन पांच राज्यों के समूचे चुनाव अभियान को देखकर स्पष्ट होता है।
टेलीविजन सहित अन्य प्रचार माध्यम अपने पक्ष में खरीद लेना और अपनी छोटी से छोटी उपलब्धि को भी विस्तारित कर प्रस्तुत करना चुनाव प्रक्रिया का नया भाग बन चुका है। कुल मिलाकर मीडिया पर बहुत अधिक भरोसा करना मतदाता की मजबूरी है, कोई टीवी चैनल एक ही समाचार को चाहे वह प्रचार ही क्यों न हो यह जानते हुए कि वह गलत है कितनी बार प्रसारित करता है कि बार-बार बोले जाने वाला झूठ सत्य प्रमाणिता होने लगता है।
चुनाव अभियान के दौरान आम सभाओं और रैलियों में इकट्ठा होना वाला जन समूह वोट में परिवर्तित में होगा इसे भी सत्य नहीं माना जा सकता। जिनकी सभाओं में लाखों लोग स्वयं के व्यय से पहुंचते है उनके के हिस्से में विजयी सीटों के नाम पर कुछ प्रतिशत ही आ जाए यही बहुत होता है। जन प्रभाव की इस भ्रांति को बारीकी से राजनैतिक दल को न सिर्फ समझना होगा बल्कि चुनावी प्रक्रिया और संचालन के ढांचे में बुनियाद से ऊपर तक नई योजना पर काम करना होगा। भारतीय लोकतंत्र आजादी के बाद से अभी तक कई बार परिवर्तित हुआ है। एक लम्बा समय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की विश्वसनीयता के प्रश्न को हल करने में निकल गया है। बदलते परिवेश में अब पुरानी पद्धति को अपना पाना असंभव है पर चुनाव प्रचार के पुराने ढांचे को संशोधित रूप से प्रयोग करना राजनैतिक दलों के लिए संभव है भले ही इसके लिए उन्हें पांच साल तक निरंतर अभियान संचालित करना पडे।