सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
देश में लोकतान्त्रिक इतिहास में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया अब अंतिम चरण पर पहुंच रही है। इस बार के चुनाव में हिंसा की ख़बरे नहीं आई जो सुरक्षा बलों की सतर्कता का प्रमाण है। कोरोना के कारण प्रचार अभियान भी चुनाव अभियान के दौरान उतना तीखा नहीं रहा जितना अन्य चुनाव में होता है। सात मार्च को अंतिम मतदान की प्रक्रिया के साथ निवार्चन प्रक्रिया से 10 मार्च को चुनाव परिणाम की घोषणा के लिए लंबित रह जाएगी।
इन चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों ने अपनी संरचना और चुनाव प्रचार के तौर-तरिकों में भी भारी परिवर्तन किया है। चुनाव प्रक्रिया की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी आम आदमी तक पहुंचने और जनसभा को संबोधित करने जैसे उपक्रम इन चुनाव के दौरान प्रतिबंधित भी रहे। परिणाम यह हुआ कि भरपूर जनसमर्थन का दावा करने वाले राजनैतिक दल भी मतदान के प्रतिशत के आधार पर अब परिणामों का आकलन कर रहे है। इन चुनाव में पांच राज्यों में हिंसा का वातावरण नहीं बना, छुट-पुट घटनाओ को छोड़ दे तो जोकि नगण्य थी पूरी चुनाव प्रक्रिया लगभग शांतिपूर्ण तरिके से पूर्ण हो गई। चुनाव आयोग द्वारा की गई तैयारियों ने अपना प्रभाव दिखाया और मतदान मंे गड़बडियों की शिकायतें भी अन्य चुनाव के अपक्षा कम पाई गई।
मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए इलेक्ट्रानिक माघ्यम और शोशल मिडिया का सहारा लिया गया। जो यह संकेत करता है कि भविष्य में होने वाले चुनाव संभवतः अब इसी दिशा में आगे बडेंगे। शोर-शराबे के चुनाव प्रचार से आम मतदाता को इस बार अपेक्षाकृत अधिक राहत मिली। इस चुनाव अभियान के दौरान जातिगत और धर्मगत आधार पर भी समाज कम बटा। विकास और जनता की समस्याओं को लेकर मतदाताओं ने अधिक मुखर होकर अपनी बात रखी। परिणाम यह हुआ कि केवल वोट लेकर पांच साल तक गायब हो जाने वाले नेताओं को अपने चुनाव क्षेत्र में जनता के भी आक्रोश का भी सामना सहना पड़ा। कई जगह तो उम्मीदवारों को जनता ने अपने इलाके से धक्के मार के बाहर किया, इसके बावजूद भी हिंसा की कोई वारदान पंजीकृत नहीं हुई।
जन समस्याओं के निवारण के लिए मतदाता जागरूक हुआ है और अपनी समस्या को प्रभावी ढंग से उठाने की हिम्मत रखता है। यह इस चुनाव प्रचार के दौरान प्रमाणित हुआ संगठित होकर कई क्षेत्रों में जनता ने उम्मीदवारों से प्रश्न पूछे और  उसके संतोष जनक उत्तर न मिलने पर मतदान का बहिष्कार किया। बहिष्कार करना अपने अधिकार के उपयोग से मुकर जाना है, इसे सही सही नहीं ठहराया जा सकता। बड़े राजनैताओं ने पांच राज्यों के लगभग प्रमुख स्थानों में सम्पर्क किया सम्पर्क के मामले में हमेशा की तरह सत्ताधारी गुट अन्य दलों की अपेक्षा आगे रहा। 
उम्मीदवारों के चयन के मामले में भी इस चुनाव में परिवारवाद का दबाव सभी राजनैतिक दलों पर कम दिखा। अपने पूरे कुनबे को अपने प्रभाव के दम पर जन प्रतिनिधि बना लेने की इच्छा रखने वाले नेताओं को इस चुनाव में भारी छटका लगा है। महिला और युवा वर्ग प्रभावी ढंग से इस चुनाव में आगे आया है, जो भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है। सामाजिक मुद्दों को अब तक चुनाव में आधार बनाया जाता था परंतु उस पर चर्चा एक सीमित दायरे में होती थीं। इस बार इन चर्चाओं का दायरा बड़ा है और मतदान केन्द्र से वोट डालकर निकलने वाला व्यक्ति नेताओं और पार्टी के प्रभाव के स्थान पर अपनी समस्यओं पर बात करना उचित समझता है। पांच राज्यों के चुनाव भारतीय समाज की बदलती हुई व्यवस्था सोच को प्रदर्शित कर रहे हैं। यह स्पष्ट संकेत मिल रहे है कि अपनी समस्याओं को मतदाता धर्म और जाति या आराधना के भुलावें से दूर ले जाकर अब वास्तव में परिणाम चाहता है। यदि परिवर्तन की यह प्रक्रिया निरन्तर रही तो वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा के निर्वाचन में कई राजनैतिक दलों को अपना अस्तित्व बचाने के लिए नये मुददे् और मार्गो की तलाश करनी पड़ेगी। पर फिर भी उन्हें तय करना होगा कि मुद्दे आम आदमी के हो जो हल किये जा सकते हो, केवल झूठ बोलने और वायदे करने से अब भारत का मतदाता किसी के पक्ष में जाने को तैयार नहीं है।