सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
क्या उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणामों में क्या कोई ऐसा परिवर्तन होने वाला है जो भारतीय जनता पार्टी के अस्तित्व को और पिछले सात सालों की शासन व्यवस्था को कटघरें में खड़ा करने जा रहा है। राज्य में सत्ता पक्ष की बेचैनी और अवांछनीय हरकते यह इशारा कर रहे है कि तीन चरणों के चुनाव के बाद लाख दावों के बावजूद भाजपा असहज है। 
जैसे-जैसे चुनाव के चरण संपन्न हो रहे है निजी संस्थाओं, टीवी चेनल और सर्वे एजेंसियां प्रत्येक चरण का सर्वेक्षण का कार्य पूर्ण करती जा रही है। निश्चित ही यह सारे सर्वेक्षण भारतीय जनता पार्टी सहित प्रमुख राजनैतिक दलों को आने वाले भविष्य का संकेत दे रही होंगी। चुनाव आयोग द्वारा घटते हुए कोरोना के कारण चुनाव प्रचार अभियान में जो रियायत दी गई है वह भी इन राजनैतिक दलों को उनकी स्थितियों के बारे में लगातार सुचनाएं दे रही होगी। चुनाव सर्वेक्षण के परिणाम चुनाव प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद ही सामने आयेंगी। पर निरन्तर मिल रहे सर्वेक्षणों के बाद भी भाजपा मैदान में जिस तरह का आचरण कर रही है उससे हड़बडाहट का संकेत मिलता है। 
प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हुए व्यक्ति का सार्वजनिक सभाओं में बहक जाना और विरोधी दल के चुनाव चिन्ह पर आंतकवादी लेवल लगाकर अपने पद की गरिमा के प्रतिकूल टिप्पणी करना निंदाजनक ही माना जा सकता है। अमित शाह और नरेन्द्र मोदी की जोड़ी इन चुनाव के दौरान प्रभावशाली नहीं रही है इसमें कोई संदेह नहीं है। दूसरी और पिछले सात सालों से दर किनार किये गये वरिष्ठ भाजपा नेताओं को चुनावी जिम्मेवारियों दूर रख कर भाजपा को व्यक्तिवादी संगठन बनाने की कोशिश इन चुनाव में भारी पड़ रही है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ विधानसभा चुनाव के अंतिम दौर में जरूरत से ज्यादा सक्रिय होने जा रहा है ऐसे संकेत मिल रहे है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की इस पतली हालत के लिए प्रदेश का बिखरा हुआ भाजपा संगठन और व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा अधिक जिम्मेवार है। पिछले सात सालों के द्वारा निर्वाचनों में बार-बार उपयोग किये गये अलग-अलग जुमलें आम मतदाता के विश्वास को पूरी तरह हिला चुके है। संभवतः मतदाता यह मान रहा है कि आश्वासनों और सपनों के भरोसे केवल धर्म के प्रति आस्थावान रहकर किसी दल की राजनीतिक जरूरतों को पूरा करना उसका कर्तव्य नहीं है। 
युही उत्तर प्रदेश जातिय राजनीति से अधिक प्रेरित रहा है, उपजातिय निष्ठाएं राज्य के राजनैतिक समीकरणों को प्रभावित करती रही है। परंतु आश्चर्य जनक रूप से लाख कोशिशों के बाद भी इस बार उत्तर प्रदेश हिन्दू-मुस्लमान राजनीति में क्यों नहीं विभाजित हुआ इस पर शोध किया जाना अनिवार्य है। उत्तर प्रदेश की यह धारा जिसमें जातिय विभाजन का स्थान खत्म हो गया है, भाजपा के लिए वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में घातक सिद्ध होगी। सात साल पहले से 2024 में राम मंदिर पूरा करके फिर धार्मिक भावनाओं को भड़काना भाजपा का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है, उन स्थितियों में जब विधानसभा चुनाव से विभाजन को नकारने के संकेत मिल जायेंगे। 2024 का चुनाव भाजपा के लिए भारी पडेगा इतना ही नहीं वर्षो से इस विभाजन की भूमिका बनाने वाले हिन्दू संगठनों को भी बुनियादी मुद्दो बेरोजगारी, महंगाई और जन समस्याओं पर स्वयं को केन्द्रित करना होगा जो उनके लिए संभव नहीं है। विभाजन की यह रेखा जितनी आसानी से मंदिर-मस्जिद के नाम पर खिची जा सकती है उतना आसान रास्ता और कोई नहीं है। इस बार के विधानसभा चुनाव कई दशकों से चले आ रहे इस मिथक को तोड़ने में कामयाब होंगे और देश के भविष्य में जन जनसमस्याओं और उसके निराकरण को राजनैतिक दलों की बाध्यता बनाने में कामयाब रहेंगे। फिलहाल पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा गहरे आघात की आर बढ़ रही है, अगले तीन चरणों के चुनाव में उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री सहित सभी भाषणकर्ता अर्थहीन मुद्दों को इसी घबराहट में तुल देने की कोशिश करेंगे कि कही दल चुनाव न हार जाए।