सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
इस बार के पांच राज्यों के चुनाव में कुछ नए तथ्य मतदाताओं की भविष्य की शैली और उनके विचारों को प्रभावित करने के लिए महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावी होने जा रहे है। भारत के लोकतंत्रीय जीवन में अब तक जिस तरह मानसिक सोच को बदलने या उन्हें प्रभावित करने की कोशिशे कामयाब होती रही हैं। इस बार का निर्वाचन उन सभी पुरातन मर्यादाओं को तोड़ देने का संकेत दे रहा है।
भारतीय लोकतंत्र का इतिहास गुलाम भारत की प्रताड़ना के किस्से और उसके विरोध स्वरूप खड़े किये गये अहिंसक आंदोलन को मूल विषय वस्तु बनाकर प्रारंभ होता है। इस शुरूआत में धर्मगत, जातिगत और संप्रदायगत चाशनी का कहीं प्रभाव नजर नहीं आता है। परंतु आज़ादी के लगभग सात दशक बितने के बाद मान्यताएं पूर्णतः बदल गई। किसी भी निर्वाचन के पूर्व हिन्दू-मुस्लमान विभेद कर चुनाव में जीत का मंत्र खोजा जाने लगा। भ्रष्टाचार कभी निर्वाचनों को प्रभावित करने का कभी मुद्दा बना तो कभी बेरोज़गारी और मंहगाई जैसे विषयों में निर्वाचन की प्रक्रिया को इतना बदल दिया गया कि सरकारें ही बदल गई।
परंतु सबसे अधिक सफल प्रयोग हिन्दू-मुस्लमान, पाकिस्तान-अफ़गानिस्तान जैसे मुद्दों पर देश की जनता को आक्रोशित करने के उपक्रम के साथ प्रमाणित पाया गया। पिछले कई निर्वाचनों में तीन दशकों के दौरान हिन्दू-मुस्लमान, पाकिस्तान धीरे से राष्ट्रीय सुरक्षा राष्ट्र गौरव का प्रतिक बन गया। बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनात्मक कमजोरियों को समझते हुए और उनके अंदर पल रही असुरक्षा की भावना को गंभीरता से उपयोग करते हुए बार-बार यह भय खड़ा किया जाने लगा कि यदि देश के भविष्य पर कोई सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह है तो उसे इस्लाम या मुसलमान ही कह सकते है। पिछले सात सालों के दौरान एक बड़ा अवसर बना जब देश में एक ही दल की सरकार को पूर्ण बहुमत के साथ निरंकुश होकर खेलने का अवसर मिला। यह वही समय है जब हिन्दुत्व के नाम पर देश के बहुसंख्यक मतदाताओं को हमेशा के लिए राष्ट्रवादी कह कर अपने पक्ष में किया जा सकता था।
इस बार के पांच राज्यों के चुनाव कुछ अलग संकेत दे रहे है, किसान आंदोलन के बाद बढ़ती हुई महंगाई-बेरोजगारी ने आम मतदाता के मानस को हिन्दू-मुस्लिम के व्यर्थ के विवाद से आंशिक रूप से ही सही अलग कर दिया है। पांच राज्यों में विकास से संबंधित सवालों की झड़ी ने राजनैतिक दलों को परेशान कर दिया, स्थितियां यहा तक बिगड़ी की हिन्दू-मुस्लमान का जाप करने वाले राजनैतिक दल के उम्मीदवार अपने क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं कर पाएं यह क्रांति का उद्घोष है। यह संकेत है कि आम व्यक्ति अब खाली जेबों को बेरोजगारी को और भविष्य के स्वयं के संकटों को समझने लगा है भक्त बन कर जीवन नही जिया जा सकता। इस वास्तविकता को स्वीकार करने में अभी थोड़ा समय लगेगा, पर यह संकेत है कि लोकसभा चुनाव के आते-आते देश की विचारधारा में एक बड़ा परिवर्तन होगा जो संभवतः समस्याओं के निराकरण पर आधारित होगा झूठे और कोरे राष्ट्रवाद के प्रचार पर नहीं।
पांच राज्यों के चुनाव भविष्य के संकेतों को निरंतर स्पष्ट कर रहे है। इस बार वह जादू नहीं है जो प्रचार माध्यम के जरिये पिछले सात सालों के दौरान हवा में खड़ा किया जाता रहा है, और वोट लेने के बाद अस्त हो जाता है। इस बार मतदाता किसानों की दुर्दशा देखकर और आसपास बदले हुए वातावरण में स्वयं की स्थिति को देखकर एक नये निर्णय की और बड रहा है जिसे शुभ संकेत ही माना जा सकता है।