सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्य प्रदेश सरकार ने एक अभूतपूर्व निर्णय लेते हुए यह तय किया है कि अब गांव का जन्म दिवस मनाया जायेगा। इस निर्णय के पीछे कि भावानाएं क्या है उससे प्रशासनिक, सामाजिक या आर्थिक रूप से क्या लाभ होने वाले है इसकी व्यवहारिक परिकल्पना संभवतः सरकार ने अनुभवी और विशिष्ट विशेषज्ञों के माध्यम से करनी होगी। 
गांव का जन्म दिवस कैसे मनाया जायेगा क्या भविष्य में उस गांव की स्थापना के समय या उसमें लम्बे समय तक रहने वाले लोगों का चयन करके उन्हें कोई ग्रामीण पेंशन योजना और तांम्र-पत्र जैसी सुविधाएं भी दी जाएँगी। गांव की समस्या को समझने वाले लोगो को इस जन्म दिवस के बाद समस्या हल करने की दिशा में क्या कोई मदद दी जायेगी। क्या गांव में शिक्षा, स्वास्थ आदि विषयों पर क्या बुनियादी सुविधाओं में सुधार होगा। गांव में रहने वाले बुजुर्गो और गांव की स्त्रियों के लिए किस विशेष सुविधा को जन्म दिया जायेगा, जिससे उनका जीवन सरल हो सके। गांव का जन्म दिन बनाने का मतलब है उस ग्रामीण व्यवस्था को दीर्घजीवी बनाने के लिए एक दिशा देना। दिशाविहीन जन्म दिन यदि राजनैतिक संस्कार बन जाता है तो गांव का जन्म दिन मात्र एक औपचारिकता और नेताओं के सम्मान का प्रतिक बन कर रह जायेगा।
गांव जन्म नहीं लेते गांव बनते हैं, आपसी समझ-बुझ सामंजस्य और परसपर निर्भरता की सामूहिक जिम्मेवारी निभाने के लिए तैयार व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह एक गांव का निर्माण करता है। गांव अधिकत आधुनिक नहीं होते, वैचारिक रूप से परम्पराएं और रूढ़िवादी विचारधारा इन गांव का अलंकरण होती हैं। छोटी-छोटी वे चीजे जो शहरी माहोल में बिना काम के समझी जाती है, प्रत्येक गांव का आधार बनती है। गांव के प्रत्येक घर में सुखते हुए उपले दरवाजे पर बंधी गाय या भैस छोटी या बड़ी आकार की भूमि का टुकड़ा जिसमें फसल लगती हो गांव की बुनियादी जरूरते होती है।
आज गांव का जन्म दिन बनाने की प्रक्रिया मुख्यमंत्री ने अपने गांव जैत से शुरू की है। जैत उतना बड़ा क्षेत्र नहीं है जितना उसमें रहने वाला व्यक्ति शिवराज सिंह चैहान है। गांव में मानवीयता और परस्पर सदभाव कभी जातिगत भावनाओं पर आधारित नहीं होता। समूचे भारत में शायद ही किसी ने सुना हो कि अमुक गांव मुस्लमान है, हिन्दू है, इसाई है या सिख है यह संभव ही नहीं है। वर्तमान राजनैतिक संदर्भ में इस तरह की रिहाइश की कल्पना कर पाना ही असंभव है। हम विकास के लाख दावें कर ले गांव जैस कुछ बना पाने में वास्तव में हम सक्षम नहीं है, यदि बना भी लेते है और उन्हें स्मार्ट गांव की संज्ञा भी देते है तो उन भावनाओं को और आदर्शो को हम वहां स्थापित नहीं कर सकते जो प्राकृतिक रूप से बसें हुए गांव में होती है। एक गांव होता है उसमें एक कुआ होता है कुछ ढोर ढंगर होते है एक मंदिर होता है एक नमाज पढ़ने की जगह होती है और ढेर सारी मानवीय सदभावनाएं और लोग होते है जो इस सम्पत्ति की सुरक्षा करते है। 
गांव की परम्परा यह रही है कि गांव की किसी भी जाति की बेटी यदि किसी दूसरे गांव में ब्याही गई है तो पूरा गांव कितनी भी विपत्ति में उस दूसरे गांव की रोटी या पानी को ग्रहण नहीं कर सकता था। इस बात का गर्व होता था कि हमारे गांव की बेटी इस क्षेत्र में ब्याही गई है। सामाजिक मान्यताओं से परिपूर्ण परम्परागत गांव में एक जमीदार भी होता था, एक पंडित होता था, एक नाऊ होता था, एक कुम्हार भी होता था। ये किसी भी जाति के हो इनका महत्व गांव के लिए बहुत था, इनकी मान और प्रतिष्ठा के लिए समूचा गांव संघर्ष करता था। हम गांव का जन्म दिन बना लेंगे पर क्या कभी इस परम्परागत ग्रामीण परिवेश को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार कर सकेंगे। जहा समूचा हिन्दूस्तान एक है न जाति है न धर्म है और न मजहब है अमीरी-गरीबी का भेद यहां से कोसो दूर है। केक काटके जन्म दिन बना लेना और ओर धोड़ी देर हंसी ठिठोली कर इसे अपनी राजनैतिक उपलब्धि बना लेना कही आसान है किसी एक गांव को गांव बना लेने से। वास्तव में गांव भारत की आत्म है और आत्मा का जन्म दिन आज तक कोई नहीं बना सका। पर उसके अस्तित्व से भी कोई इंकार नहीं कर सकता सरकारों को इतने मार्मिक बिन्दुओं के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। राजनैतिक में झूठ की कोई सीमा नहीं है पर यदि जन आकांशाओ को कुरेद के इस तरह के खिलवाड़ किये जाते रहे तो इस भारत को भारत बनाये रखने में कई परेशानियों का सामना करना पडे़गा।