सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी द्वारा लोक सभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जवाब में दिये गये भाषण की मिश्रित प्रतिक्रिया सामने आ रही है। ज्यादातर लोगों का मानना है कि बिन्दुवार राहुल ने जो सवाल पूरी सज्जनता के साथ सरकार से पूछे हैं उनके जवाब भी सरकार को उसी गंभीरता और शालीनता के साथ देने चाहिए। दूसरी और सरकारी पक्ष राहुल गांधी के भाषण का उत्तर देने के स्थान पर उसे व्यर्थ के विवाद में घसीटना चाहता है।
यह पहली बार है कि राहुल गांधी द्वारा दिये गये भाषण का मजाक बना पाने में भाजपा असफल रही है। राहुल ने जिन बुनियादी प्रश्नों को सहज और सरल भाषा में आम व्यक्ति के पक्ष रहते हुए पूछा है उसका जवाब जुमलों और नारों के भरोसे नहीं दिया जा सकता। राहुल गांधी का प्रत्येक प्रश्न व्यवस्था के प्रत्येक विषय पर सात सालों से लग रहे प्रश्न चिन्ह पर आधारित है। पिछले सात वर्षो के दौरान जुमले और नारों पर आधारित भारत की राजनीति को पहली बार लोकसभा में किसी ने धोने का काम किया है। इस धुलाई से वे समस्त व्यवस्थाएं और क्रिया कलाप खुल कर सामने आ गये है, जिन्हें नारों के भरोसे या साम्प्रदायिक कार्ड खेल कर छुपा लिया जाता था।
घरेलु व्यवस्थाओं से लेकर भारत के वर्तमान एवं भविष्य से हुते हुए भारत की विदेश निति तक प्रश्नों का एक लम्बा सिलसिला है जिसके उत्तर दे पाना व्यवहारिक रूप में सम्भव नहीं है। राजनीति में चैत्रीतावाद और तानाशाही प्रवृत्तियों के उत्थान के कुछ उदाहरण तो राहुल ने प्रस्तुत किये, पर उन उदाहरणों ने उन सेकड़ों घटनाओं को भी जीवित कर दिया जो अप्रत्यक्ष रूप से पिछले सात वर्षो के दौरान आम व्यक्ति के मन में शंकाएं पैदा करती रही है।
दो उद्योगपतियों के बराबरी पर शेष भारत की समस्थ जनसंख्या को खड़ा करके जिस आर्थिक असंतुलन की और राहुल गांधी इशारा करते है उससे हर आम आदमी प्रभावित है। वैसे भी भारत के लोगों को किसी के करोड़पति बन जाने से शायद ही कभी कोई एतराज रहा हो, पर उसकी स्वयं की समस्याएं जब किसी के करोड़पति घोषित होने से बड़ती हो तो चिंता स्वाभाविक है। राहुल गांधी ने जिस शैली में इन समस्याओं को पहली बार लोकसभा में आम आदमी के सामने रखा है उसमें भाजपा में भी एक आंतरिक तूफान खड़ा कर दिया है। 
वैसे भी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल जैसे राज्यों में भाजपा के उम्मीदवारों का मतदाताओं द्वारा विरोध और उनके गांव-कस्बें में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना एक सामान्य घटना होती जा रही है जो भाजपा के लिए चिंता का विषय है। दूसरी और किसान आंदोलन वापस करने के लिए किसानों के साथ किये गये वायदे अंश मात्र भी अभी तक पूरे नहीं किये गये है इसका विपरित प्रभाव उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में लगातार देखा जा रहा है। इन स्थितियों में यदि किसी राष्ट्रीय दल का बड़ा नेता हर छोटी-बड़ी समस्या को लोकसभा के माध्यम से एक प्रश्न वाचक चिन्ह के साथ नये सिरे से खड़ा कर देता है तो सत्ताधारी राजनीति में असंतुलन बन जाना स्वाभाविक है।
इसके बावजूद सत्ताधारी दल के नेता कही-कही राहुल गांधी के द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को संवैधारिक संस्थाओं पर टिप्पणी से जोड़ कर सार्वजनिक माफी की मांग कर रहे है, यह माफी कितनी जरूरी है इसका उत्तर स्वयं उनके पास नही है। वैसे भी भाजपा ने अपने नियमित प्रवक्ताओं को राहुल गांधी के भाषण के विरुद्ध कोई लाइन देकर नहीं खड़ा किया है। संभवतः यही कारण है कि देश का आम जन मानस उठाये गये प्रश्नों से अपने जुड़ाव को खोज रहा है।