सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण की चर्चा में इस बार राहुल गांधी बोले। यह आभास हुआ कि समय के साथ-साथ राहुल गांधी की बोलने की क्षमता, चीजों को समझने की क्षमता और बोलते समय वाक्य विन्यास में कुछ सुधार आया है। पर आज भी सदन में बोलते समय जिस परिपक्वता का अनुभव होना चाहिए उसका बहुत बड़ा अभाव उनके बोलने की शैली में नज़र आता है।
राजनीति में आने के बाद से राहुल गांधी निरंतर अपने आपको अभिव्यक्त करने मे असमर्थ नज़र आते है। जिसका प्रमुख कारण स्वयं कांग्रेस के नेता उनके कम व्यवहारिक अध्ययन और उनके सामान्य अनुभवों वालें लोगों की दूरियों से आकने की कोशिश करते है। राहुल गांधी में इस दौर में परिपक्वता आई है जो उम्र के साथ स्वाभाविक है। परंतु फिर भी भाषण की कला में और स्वयं को जाहीर कर पाने में वे आज भी अक्षम नज़र आते है। राहुल गांधी के ऊपर कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी का वजन है, आम व्यक्ति राहुल के भाषणों में प. जवाहर लाल, स्व. इंदिरा गांधी जैसी छवि को अनुमानित करता है। 
सार्वजनिक मंच पर बोलने की कला आत्मविश्वास से जन्म लेती हैं। उसके लिए विशेष संबंधित तथ्यों का ज्ञान होना और साथ ही आस-पास चल रही घटनाओं का व्यवहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। कुछ पुरानी कथाएं, संस्मरण इस तरह की भाषण कला को अधिक रूचि कर बनाते है। कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता रहे प्रख्यात साहित्यकार स्व. श्रीकांत वर्मा भाषण की इस कला और शैली की बहुत बड़े विद्वान रहे है। व्यक्तिगत बातचीत के दौरान श्रीकांत जी का स्वयं कहना था कि तथ्यों के प्रस्तुतिकरण के लिए बोलने की शक्ति के साथ-साथ दिमागी रूप से सजीव रहना भी बहुत जरूरी होता है। एक ही वाक्य में प्रयुक्त किये जाने वाले कई शब्द भाषण के दौरान कितनी शक्ति के साथ उपयोग किये जाने चाहिए और उस समय वक्ता की भावभंगिमा क्या होनी चाहिए। यदि इन सब का सामंजयस सही हुआ तो भाषण इतिहास में अमर हो सकता है। गु से गुल विषय पर कितने भी तथ्यों और आंकड़ों के साथ आप अपनी बात कहलों श्रोता के लिए वह भाषण उबाऊ ही होता है।
राहुल गांधी के साथ सबसे बड़ी परेशानी यही है कि उन्हें भाषण की इस शैली में और भाषण के साथ-साथ भावभंगिमाओं के सामंजयस का कोई ज्ञान नहीं है और नाही उनके आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति है जो कहे जाने वाले हिन्दी वाक्यों की ताकत का आभास उन्हें करा सके। 
राहुल गांधी अपने भाषण के दौरान कितने अनिश्चित होते है इसका आभास उनके चेहरे को देखकर लगाया जा सकता है। विपक्ष की किसी भी टिका-टिपण्णी को निजी तौर पर ग्रहण करके उनके द्वारा दिये जाने वाले उत्तर किसी बच्चे द्वारा व्यक्त की गई अभिव्यक्ति के अनुरूप होते है। एक राष्ट्रीय स्तर के नेता के शरीर की जो भाषा होती है उसका अभाव राहुल गांधी में स्पष्ट नज़र आता है। यही करण है कि प्रथम दृष्टि में हुए अविश्वास को भाषण के दौरान व्यक्त अभिव्यक्ति में शामिल कर समूचा भाषण एक मजाक बन कर रह जाता है। ऐसा नहीं है कि किसी भी भाषण के पूर्व राहुल तैयारी नहीं करते हो पर तैयारी कराने वाला व्यक्ति स्व. श्रीकांत वर्मा जैसा हो तो ही सार्वजनिक मंच पर एक राष्ट्रीय नेता का उदय होता है। 
एक दृष्टि में यह भी लगता है कि राहुल गांधी के आस-पास कार्य करने वाला उनका विश्वस्त समूह भी स्वयं इस प्रक्रिया से अवगत नहीं है। जी हुजूरी की कला में माहिर इस टीम के सदस्य राहुल गांधी के किसी भी अपूर्ण प्रयास को भी दरबारियों की तरह वाहवाही में ला खड़ा करते है। परिणाम यह होता है कि जो कुछ कहा गया उसे अधिक सुनने योग्य बनाने का अवसर हाथ से निकल जाता है। इसके बावजूद राहुल गांधी ने लोकसभा में जो भाषण दिया उसमें सुधार के संकेत मिलते है। जितना भी सिख रहे है जिससे भी सिख रहे है राहुल को सिखने की यह प्रक्रिया जारी रखनी चाहिए ताकि भविष्य में कांग्रेस को एक बेहतर नेतृत्व मिल सके।