सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
उत्तर प्रदेश के चुनाव का प्रथम चरण करीब है, पर नेताओं की भाषा शैली इतने निम्न स्तर पर जा चुकी है कि यह आभास करना भी मुश्किल होता जा रहा है कि हम एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को जनता की इच्छा के अनुरूप पूरा करने जा रहे है। समूचा उत्तर प्रदेश चुनाव के प्रथम चरण से ही अश्लील, घटिया और गैर जिम्मेदाराना शाब्दिक हथियारों से पटा पड़ा है। आम मतदाता को इन जुमले बाजियों और गालियों के मध्य स्वविवेक से निर्णय लेने का अधिकार कही नज़र नहीं आता।
मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान जैसे विषयों पर आधारित उत्तर प्रदेश का चुनाव धीरे-धीरे अपने वास्तविक स्वरूप में आ रहा है। अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए एक और राजनैतिक दल और उसके नेता साम्प्रदायिक दंगों को हवा देने की कोशिश में नज़र आते हैं। तो दूसरी और चोर, हत्यारा, भ्रष्टाचारी जैसे शब्दों का खुले आम उपयोग कर एक दूसरे की कलई भी खोल रहे है। राज्य में लगभग सभी राजनैतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। आया राम गया राम की राजनीति भी बड़े पैमाने पर पूरी हो चुकी है। अब यदि आवागमन होता भी है तो वह राजनीति की आवश्यकता के अनुसार प्रलोभन या अन्य कारणों से ही होगा।
इस बार उत्तर प्रदेश का चुनाव बहुत महंगा है। भाजपा एक और इस दांव की सबसे बड़ी खिलाड़ी बन कर उभर रही है तो समाजवादी पार्टी भी अपने गठबंधन के साथ हर मोर्चे पर कमर कस चुकी है। इन दोनों दलों के अतिरिक्त बहुजन समाज और कांग्रेस चुनाव में होते हुए भी केवल भाग्य के भरोसे अपने अस्तित्व की कल्पना कर रहे है। धर्म, जाति और फिर उपजाति पर धीरे-धीरे संघर्ष गहरा होता जा रहा है। यही करण है कि मंच पर खडे़ होने वाले नेता बुनियादी सवालों और जनता हित के मुद्दो को छोड़कर निम्न स्तरीय भाषा और उपमाओं की वृद्धि कर रहे है। इन परिस्थितियों में इस बात की संभावना प्रबल हो जाती है कि चुनाव खत्म होते-होते तक गलियों में गुंजने वाला गालियों का शोर उत्तर प्रदेश के चुनावी मंच भी भाषा बन जायेगा।
इस कठिन दौर में उत्तर प्रदेश का मतदाता महंगाई, बेरोजगारी, पुलिस या आंतक से जुझता हुआ अपनी समस्याओं से निजात पा सकेगा इसकी संभावना कम है। चुनाव अभियान के चलते ही उत्तर प्रदेश के बेरोजगारों को जिस तरह घेर कर पुलिस के डंडों से उनकी आव भगत की गई वह यह स्पष्ट करता है कि आम व्यक्ति की समस्याओं से अब राजनीति में प्रभावित होना बंद कर दिया है। मार्च महीने तक केन्द्र सरकार द्वारा मुफ्त राशन की सुविधा उत्तर प्रदेश को भी दी जा रही है। परंतु मार्च के बाद क्या होगा इसकी कोई गारंटी नहीं दी गई है। यदि मुफ्त राशन बंद कर दिया जाता है तो गरीबी रेखा के निचे अधिकतर जीवन यापन करने वाले उत्तर प्रदेश के लोगों को अकाल का सामना करना पड़ेगा। दूसरे अर्थों में कहे तो यदि मुफ्त राशन निरंतर चाहिए तो उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को अपना सोच सरकार की और ही रखना होगा।
देश में विकसित हुई नई राजनैतिक प्रक्रिया में उत्तर प्रदेश का यह चुनाव एक प्रयोग है, जिसमें आम व्यक्ति को अकर्मण्य बनाकर उसकी बुनियादी ज़रूरतों पर मुफ्त सहायता का बैनर लगा दिया जाए और इस नाम से ही इस अक्रियाशील मतदाता को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए बाध्य कर दिया जाए। वास्तव में यह कार्पोरेट के षड़यंत्र का एक हिस्सा है, वह तंत्र जो की समूचे देश को समूचे लोकतंत्र को और भारत के गणतंत्र को बिना श्रम किये अकर्मण्य बनाकर खरीद लेने की प्रक्रिया का आदि बना रहा है। उत्तर प्रदेश का चुनाव एक प्रयोग स्थली है जहां अप शब्दों के अलावा साम्प्रदायिक भावना को भड़का कर धर्म स्थलों को एक झांकी तरह सजाकर आम मतदाता को उसकी स्वयं की क्षमताओं और निर्णय लेने के अधिकार से दूर रखा जा सकता है। यदि यह प्रयोग उत्तर प्रदेश में आंशिक रूप से भी सफल होता है तो देश में चल रही पिछले सात सालों की राजनीति को स्थायी राजनीति बनाने में षड़यंत्रकारियों को भारी मदद मिलेगी।