सरकार की जिद से लड़ने का नायाब तरीका
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): सात सालों के बाद ही सही देश के हैरान-परेशान आम आदमी को सरकार का विरोध करने का अचूक तरीका मिल गया है। किसान आंदोलन की सफल परिणीति ने उसे समझा दिया है कि तानाशाही पूर्ण निर्णयों के क्रियान्वयन को यदि रोकना है या पलटना है तो उसे एक लम्बे आंदोलन के लिए उस समय तैयार होना पड़ेगा जब आक्रोशित लोगों की संख्या उनके परिवार चाहने वालों की संख्या मिलकर किसी भी सम्भवित चुनाव में भाजपा को पराजय की और न ढकेल दें।
किसान आंदोलन एक दृढ़ इच्छा शक्ति और पक्के इरादे से प्रेरित था। सरकार ने हर उस तंत्र का उपयोग किया जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में देश के आम नागरिक के विरुद्ध नहीं किया जा सकता था। किसान डटे रहे उन्हे खलिस्तानी, पाकिस्तानी और भी न जाने कितने अलंकारों से बार-बार विभूषित किया गया। इसके साथ-साथ ही समस्या का हल ढूढ़ने के लिए उच्च स्तरीय बैठकों की एक नाट्य श्रृंखला भी प्रारंभ की गई। अंहिसा के मार्ग पर चलते हुए किसानों ने अपना धैर्य नहीं खोया। जब तक उत्तर प्रदेश और अन्य चार राज्यों के चुनाव सामने नहीं आए तब तक मोदी सरकार इस मामले को गंभीरता से लेना ही नहीं चाहती थी। किसानों के नेता यह समझ गये थे कि भाजपा केवल वोटो की चोट का फार्मूला समझती है। 700 से अधिक किसानों के मरने के बाद जब चुनाव वाले राज्यों में किसानों ने अपनी कार्यवाही प्रारंभ की तो भाजपा के हाथ-पैर फूल गये। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में भाजपा को यह विरोध सत्ता से बहुत दूर ले जाने वाला प्रतित हुआ। आनन-फानन में प्रधानमंत्री ने स्वयं सुबह टीवी की खिड़की खोली और बुझे मन से तीनों कृषि कानून वापस लेने की घोषणा कर दी।
देश को यह पता लग गया है कि प्रधानमंत्री की मोदी की जिद को भी उन पर पड़ने वाले कार्पोरेट के दवाब को भी एक स्थायी जन आंदोलन के माध्यम से उस समय प्रभावित किया जा सकता है जब कोई चुनाव जिसमें भाजपा की अस्मिता दांव पर लगी है सामने हो। पिछले 15 सालों से कल्पना के घोड़े उडाकर धार्मिक रूप से आम वोटर को उद्ववेलित करके आंतकित करके दो बार की सत्ता हासिल की गई। अब ये पांच राज्यों के चुनाव हो रहे है तो बेरोजगार युवकों ने बिहार, और उत्तर प्रदेश में सडकों पर मोर्चा खोल दिया है। यदि राज्यों से आई रिपोर्ट का भरोसा करे तो मोदी सरकार के लिए यह क्षण सबसे अधिक चिंता का है। यदि रेलवे भर्ती बोर्ड की लापरवाही के कारण पूरे देश में रोजगार पाने की महत्वाकांशा धार्मिक नारों और राष्ट्रवाद के ऊपर भारी पड गई तो केन्द्र सरकार का भविष्य 2024 तक ख़तरे में पड़ जायेगा।
दूसरी और वर्तमान में हो रहे चुनाव के दौरान भाजपा छोड़ के निकलने वाले नेता सात साल तक सत्ता सुख भोगने के बाद भी भाजपा के नेतृत्व या प्रधानमंत्री की क्षमताओं की तारीफ नहीं कर रहे है यह बुरा संकेत है। प्रधानमंत्री पार्टी का नेतृत्व होता है कोई दल में रहे या दल से बाहर जाए उसे अपने पूर्व कार्यकाल में प्रधानमंत्री का सहयोग अवश्य मिला होता है। पलायन की यह प्रवृत्ति यदि इसी तेजी से बढ़ती रही तो संकेत देगी कि अंसतोष का गुबार पाले हुए कई भाजपा के नेता सही समय आने पर अपनी नाव बदल सकते है।
भाजपा ने वैचारिक आधार लगभग खो दिया है। पूरी सरकार का अस्तित्व चंद उन पाले हुए विश्वस्त अफ्सरों पर टिका है जो शासकीय सेवा से अलग होकर राज्य सभा के माध्यम से सांसद या मंत्री बना दिये गये है। दूसरी और दिल्ली के सूत्र यह स्पष्ट करते है कि किसी भी समस्या या सर्वेक्षण के लिए केवल गुजरात के अफ्सरों और राजनेताओं पर ही भाजपा हाई कमान भरोसा करता है। विभाग में भी यही देखा जाता है कि नितिन गडगरी और राजनाथ सिंह सफल राजनैतिक अनुभवी मंत्री भी यदा-कदा ही सरकार के पक्ष में कोई बात कहने के लिए अधिकृत किये जाते है। शेष समय अनुराग ठाकुर या स्मृति ईरानी विशिष्ट प्रवक्ता बनकर सरकार की गतिविधियों की जानकारी देश तक पहुंचाते हैं।
भाजपा के बलए उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पंजाब, मणिपुर और गोवा में कोई राज्य आसान नहीं नही है। कहीं भी भाजपा यह दावा नही कर सकती कि मोदी जी के चेहरे पर उसे एक बार फिर राज्य में सरकार बनाने का मौका मिलेगा। भविष्य की चिंताओं से परेशाना भाजपा के दिग्गज गली-गली, चौराहे-चौराहे पर वोट मांग तो रहे है पर देश का समुचा खुफिया तंत्र संभवतः उन्हें सफलता पर मंडरा रहे संकट के बारे में समय-समय पर जानकारी दे रहा होगा।