निम्न स्तरीय चुनाव का प्रतिक बनेगा उ.प्र.
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): इस बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव वो भी भविष्य के लिए सबसे घटिया और निम्न स्तरीय परिपाटी की शुरूआत करेंगे। राजनीति अपनी मर्यादा पहले ही खो चुकी है। चुनाव के ठीक पहले अमर्यादित बयानों के माध्यम से व्यक्तिगत लांछन लगाना अब तक हुए चुनाव में एक सामान्य घटना हो चुके है। परंतु इस बार उत्तर प्रदेश का चुनाव इससे भी घटिया होने जा रहा है।
राजनीति की हवाएं कहती है कि अब तक चुनाव में और चुनाव के बाद उम्मीदवारों या विजयी विधायकों की सार्वजनिक बोली लगने का सिलसिला चलता था। पिछलें चुनाव के दौरान एक-एक विधायक की कीमत करोड़ो रुपए तक पहुंच जाने की खबरें भी आम हो गई थी। राजनैतिक दल किसी भी तरह सरकार बनाने के लिए करोड़ो रुपया प्रचार अभियान के अतिरिक्त विधायको की खरीदी के लिए भी सुरक्षित रखते है। वर्तमान चुनाव में अब तक हुई प्रक्रिया में चुनाव आयोग द्वारा लगाई गई बंदिशों के कारण मैदानी स्तर पर प्रचार का कोई खम्बा नहीं खड़ा किया जा रहा है। इसके विपरित सोशल मीडिया के माध्यम से सिमित संख्या में घर-घर जाकर प्रचार करने की प्रक्रिया के तहत उम्मीदवार के पक्ष में माहोल बनाया जा रहा है। यह कार्यक्रम कितना प्रभावशाली है आज तक इसका विश्लेषण नहीं हो पाया है। पहले भी चुनाव में इस सभी माध्यमों के अतिरिक्त रैलियों और जुलुस के माध्यम से अपनी शक्ति का आकलन और प्रदर्शन किया जाता रहा है। कोरोना के प्रभाव में विचार के तरिके को बदल दिया संभवतः यही कारण है कि राजनीति की परिभाषा भी धीरे-धीरे बदलने लगी है।
राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी के मध्य सीटों के बटवारें को लेकर पूरे समझोते के बाद भी भाजपा की यह कोशिश है कि किसी तरह जाटों के वोट बैंक पर कब्जा करने के लिए अंतिम चरणों में भी राष्ट्रीय लोक दल को तोड़ दिया जाए। हांलाकी प्रारंभिक पहल का साकारात्मक कोई उत्तर राष्ट्रीय लोक दल ने पॉजिटिव होकर नहीं दिया है। परंतु इस समुचे घटना क्रम को लेकर जिस तरह भाजपा के प्रवक्ताओं ने अलग-अलग टीवी चैलन पर जाटों का हमदर्द बनने और इतिहास की मदद लेकर इस गठबंधन को ही गलत प्रमाणित करने की कोशिश की है वह असाधारण है।
उत्तर प्रदेश का चुनावी गणित कहता है कि भाजपा यहा बहुत संकट में है। अपनी पूरी ताकत लगाने क बाद भी ये चुनाव भाजपा के लिए भारी पड़ सकते है। जातिगत वोटों के आधार पर बटे हुए इस प्रदेश में बेरोजगार, किसान और अल्प संख्यक वर्ग के मतदाताओं को भाजपा अपने चंगुल में नहीं ले पा रही है। रैलियों में लगी रोक के कारण अनावश्यक रूप से जमा भीड़ को दिखाकर वह शक्ति प्रदर्शन भी नहीं कर सकती है। परिणाम यह है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव नई राजनीतिक संस्कृति और प्रवेश कर रहा है। इस राज्य में ब्राम्हणों का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा क विरोध में खड़ा हुआ है। वास्तव में इस वर्ग का विरोध भाजपा से नहीं उसके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से है।
राजनीति के जानकार मानते है कि पिछले 5 वर्षो के दौरान राज्य में दलितों-ब्राहम्णों को जिस तरह की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है उससे इस वर्ग में असुरक्षा की भावना बड़ी है। दूसरी और भाजपा ने इस चुनाव में भी उसी शैली का उपयोग किया है जिसे गुजराती शैली कहा जाता है। वास्तव में भाजपा के पास उत्तर प्रदेश के बदलते हुए संदर्भो में नई राजनीति का गठन करने वाला समुह मौजुद नही है। यह चुनाव नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बनाई हुई योजनाओं पर उद्योगपतियों के शक्ति के भरोसे नहीं लड़ा जा सकता था। उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना में कोरोना के बाद भारी परिवर्तन आए है। राज्य विकसित होने के स्थान पर और गरीब हुआ है, युवा दिशा पाने के स्थान पर अधिक बेरोजगार हुआ है। इसके अतिरिक्त जिस-जिस तरह के संरक्षण का दावा भाजपा द्वारा किया जा रहा है उसके प्रमाण राज्य में कही मौजूद नहीं है। चुनाव के दौरान की जाने वाली घोषणा के बारे में उत्तर प्रदेश का ठेला चलाने वाला मतदाता भी अपना यह स्वतंत्र विचार रखता है कि चुनावी घोषणा है देखिये कभी पूरी होती है या नहीं। वैसे भी इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी का चेहरा उतना ही प्रभावशाली है जितना पश्चिम बंगाल में था और अमित शाह की रणनीति उतनी ही अविकसित है जितनी पश्चिम बंगाल मंे थी। योगी चुंकी राज्य के मुख्यमंत्री है इसलिए उनके चेहरे को आधार मानकर चुनाव की कल्पना करना बेकार है। कुल मिलाकर यह चुनाव अपने अंत तक एक निम्न स्तरीय राजनीति को देश में स्थापित करने जा रहा है।