सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): मध्यप्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव के 15 महीनें बाद भी लगभग बहुमत की कांग्रेस की सरकार एकाएक गिर गई। पाँच साल तक सत्ता पक्ष की मलाई खाने वाले सपनें देखने वाले कांग्रेस के दिव्य पुरुष विपक्ष में आकर बैठ गए। इससे उनके व्यक्तिगत धन्धों पर कोई फर्क नही पड़ा पर 15 साल तक ज़मीन में आधार ढूढ़ने की कोशिश करने वाले कांग्रेस की राज्य इकाई छिन्न-भिन्न हो गई पर अब बारी भाजपा की थी। अनजाने में ही भाजपा ने बकरियों की भीड़ में एक हाथी बांध लिया था, जिसकी जरूरतों को पूरा करना कई बकरियों के नियमित आहार में कटौती करने के बराबर था। 
सरकार बनने के बाद समय गुजरने के साथ-साथ हाथी का आकार और महत्वाकांशायें बड़ी होती गई। परिणामतः उसी बाड़े में बंद कई बकरियों के आहार में या तो कटौती हो गई या उन्हें भूखे मरने की नौबत आ गई। असंतोष पैदा होना स्वभाविक था वर्षो से कुछ बन जाने की आकांशा पाले हुए कई लोग अब षड़यंत्र की राह पर चल निकले है। लक्ष्य एक है भाजपा में अचानक पैदा हुए सिंधिया और उनके समर्थकों के कद और आकार-प्रकार को सिमित करना। मध्यप्रदेश में सैकड़ों ऐसे कार्यकर्ता है जिन्होंने भाजपा के सही-गलत निर्देशों को वर्षो तक संघ का अनुशासन मानके स्वीकार किया है। इतना ही नहीं कांग्रेस शासनकाल के दौरान इन कार्यकर्ताओं की कई गुजरी हुई पीढ़ियों ने खुले मैदान में आंदोलन के दौरान पुलिस के डंडे भी खायें है। 
सिंधिया, भारतीय जनता पार्टी की कितनी बड़ी जरूरत है इसका प्रमाणीकरण अभी नहीं हो सकता। भाजपा ने उन्हें दहेज में मिले हुए एक तमगें की तरह अपनी विशिष्ट उपलब्धि मानकर स्वीकार किया है। भाजपा इस एहसान के निचे दबी हुई है कि यदि एन वक्त पर सिंधिया बगावत न करते तो प्रदेश में सरकार का बन पाना असंभव था। सिंधिया भी इस बात को भलीभांति जानते है प्रदेश की मजबूर भाजपा को नियंत्रण में लेना और अपने प्रभा मण्डल से उन्हें हमेशा प्रभावित करना उनके लिए असंभव नहीं है। भाजपा का राज्य स्तरीय नेतृत्व कितना भी बड़ा हो अकेले सिंधिया के सामने उसकी कोई हैसियत नहीं है, इस बात का एहसास समय-समय पर सिंधिया समर्थक मंत्री और अन्य नेता भाजपा को दिलाते रहते है। 
वर्तमान में भाजपा की स्थिति यह है कि इस शासनकाल में असंतोष का ज्वालामुखी अलग-अलग क्षेत्रों में निरंतर धधक रहा है। उस पर सिंधिया की उपस्थिति राज्य में एक नये नेतृत्व को जो पूर्व कालिक भाजपाई नहीं है पैदा होने का संकेत दे रही है। प्रदेश के कई बड़े  दिग्गज नेता जिनका भाजपा की सत्ता और संगठन में वर्षो का योगदान है सिंधिया के प्रभा मण्डल के सामने प्रकाशहीन होते जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में ग्वालियर की लड़ाई सबसे बडी बनती जा रही है यह संकेत मिल रहे है कि ग्वालियर में भी वरिष्ठ भाजपाई नताओं को किनारे बिठाकर सिंधिया के कृतिम सूर्य के कृतिम प्रकाश में भाजपा आने वाले दिनों में अपने मार्ग को प्रशस्त करेंगी। इस पूरे खेल के दौरन सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि भाजपा को इस समय विपक्ष के किसी भी विरोध का कोई ख़तरा नहीं है। राज्य में कांग्रेस नहीं के बराबर है इसलिए संभवतः भाजपा में ही एक आंतरिक संघर्ष शुरू हो रहा है।
कभी मध्यप्रदेश की धारदार नेत्री कहीं जाने वाली पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के राजनैतिक अस्तित्व पर वर्तमान में ग्रहण चल रहा है। वैसे भी उमा राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति में अब प्रासंगिक नहीं है। 20 साल पहले दिग्गिविजय सिंह सरकार को पलटाकर राज्य में भाजपा की सरकार बनाने वाली उमा भारती मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और समुची भाजपा की उपेक्षा का केन्द्र बनी हुई है। उमा भारती को अब मान लेना चाहिए कि समय ने उनके राजनैतिक अस्तित्व और उनके प्रभा मण्डल को निस्तेज कर दिया है। वे चाहे लाख कोशिश करें शिवराज सिंह सरकार उमा भारती के पुनर उत्थान के सभी रास्तों को इसी तरह बंद रखेगी और आने वाले समय में संभवतः इतिहास भी यह याद न करना चाहे कि कौन थी उमा भारती। वैसे 14 फरवरी से उमा स्वयं को स्थापित करने के लिए पुनः मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है। जिससे बहुत अधिक उम्मीद करना असंभव है।