पक्ष-विपक्ष की तकरार से - नुकसान राज्य का
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): भारतीय राजनीति में पक्ष और विपक्ष नेताओं के मध्य सामान्य शिष्टाचार पिछले सात वर्षों के दौरान जिस तरह बिगड़ा है उसमें भविष्य की एक कठीन चुनौती को आमंत्रण दे दिया है। पिछले दिनों से यह ख़बर आम है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्गिविजय सिंह वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान से मिलने का समय कई दिनों से मांग रहे हैं। अब उन्हें धमकी देनी पड़ी है, यदि शिवराज उनसे नहीं मिलते तो वे मुख्यमंत्री निवास पर धरना दे देंगे, चाहे उनकी गिरफ्तारी ही क्यों न हो जाए।
भारतीय राजनीतिक दर्शन में सत्ता में बैठे हुए लोगों का निरंतर संवाद और शिष्टाचार केवल चुनाव की अवधि को छोड़ कर सामान्य बने रहने की एक परम्परा है। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवारलाल नेहरू और प्रतिपक्ष में समाजवाद के प्रेरणा श्रोत डॉ राम मनोहर लोहिया के मध्य तीखी तकरारों का सिलसिला हमेशा जारी रहता था। लोहिया, नेहरू की विचारधारा से सहमत नहीं थे और उन्होंने अपने पूरे जीवन में पं. नेहरू को जवाहर लाल कहकर ही संबोधित किया। मध्यप्रदेश की राजनीति में कांग्रेस को छोड़ कर पहली मिली-जुली विपक्षी सरकार बनाने वाले गोविन्द नारायण सिंह कभी भी अपने पूर्व के मुख्यमंत्री पं. द्वारका प्रसाद मिश्र के सम्मान में कोई कमी नहीं छोड़ते थे। विधानसभा में उपलब्ध रिकार्ड इस बात का गवाह है कि सदन में जब भी पं. मिश्र ने मुख्यमंत्री की योजनाओं पर कोई प्रश्न चिन्ह उठाया है तो उसका उत्तर गोविन्द नारायण सिंह द्वारा कृष्णायन का उदाहरण देकर ही पं. मिश्र को दिया गया है। किष्णायन द्वारका प्रसाद मिश्र की द्वारा रचित पुस्तक है जो कृष्ण के संदेशों की व्यवहारिक व्याख्या करती है।
शिष्टाचार की इसी भूमिका का निर्वाह पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सदैव प्रतिपक्ष के नेता सुन्दरलाल पटवा के साथी भी भलिभांति किया। यही परम्परा मोतिलाल वोरा और कैलाश जोशी के मध्य भी कायम रही। सारंश में यह कहा जा सकता है कि पक्ष और विपक्ष के बड़े नेताओं के मध्य सामान्य शिष्टाचार के चलते भेंट और मुलाकातों का सिलसिला कभी अवरुद्ध नहीं हुआ। वर्तमान की स्थितियों में राजनीतिक में आर्थिक लेन-देन और निजी स्वार्थो के अतिरिक्त व्यक्तिगत टिका-टिप्पणी इस कदर बढ़ चुकी है कि संबंधों में दूरिया राजनीतिक मजबूरियों से अलग हट कर अब व्यक्तिगत होती जा रही है। आज भाजपा सत्ता में है तो वो चुन-चुन कर कांग्रेस और उनके समर्थकों को नुकसान पहुचायेगी, कल जब कांग्रेस सत्ता में आजायेगी तो यही प्रक्रिया भाजपा के नेताओं के साथ भी अपनाई जायेगी।
इन स्थितियों में उस प्रशासन का क्या होगा जिसे कानून व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर संविधान के तहत कार्य करने की नसीहत देते हुए प्रति माह वेतन का भूगतान किया जाता है। राजनैतिक अलगाववाद सबसे अधिक दूष्परिणाम यदि किसी को भोगना होगा तो प्रशानिक अधिकारियों को। वैसे भी पिछले दो दशकों से मध्यप्रदेश का प्रशासन लगातार दो भागों में बटता जा रहा है। राज्य मंत्री मण्डल के सबसे शक्तिशाली मंत्री से अधिक अधिकार किसी एक विशिष्ट प्रशासनिक अधिकारी के पास होते हैं, पर वही सही मायने में सत्ता के संचालन का केन्द्र रहता है। राजनीतिक अस्थिरता के चलते प्रशासन का अवमूल्यन होना राज्य के लिए चिंता का विषय हो सकता है। किसी दौर में करोड़ पति बने प्रशासनिक अधिकारियों की संख्या भी आश्चर्य जनक रूप से बड़ी है। इतना ही नही प्रभारी मंत्रियों और नेताओं के परिवारजनों, रिश्तेदारों एवं नजदीकी लोगों की सम्पत्तियों में भी भारी वृद्धि हुई है।
संभवतः यही कारण है कि व्यक्तिगत स्वार्थो का टकराव अब पक्ष और विपक्ष नेताओं के मध्य इस अव्यवहारिक संबंधों के खुलासे को बढ़ावा दे रहा है। संबंध बनने और बिगड़ने की इस प्रक्रिया में निश्चित तौर पर नुकसान राज्य को ही है। परंतु मध्यप्रदेश में लम्बे समय से आम व्यक्ति के हित में कोई चिन्तन करने के लिए दो पक्षों के मध्य किसी संवाद की स्थापित की गई हो ऐसा नज़र नहीं आता।