सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
विश्व स्तर की सर्वोत्तम कार चालन से संबंधित पुस्तकों को आप पढ़ लीजिये। ड्रायविंग के सभी नैतिक सिद्धांतों को याद करके ड्रायविंग के लिए ही एक नये निमय को नारा बनाकर बुलंद कर लीजिये। पर क्या बगैर कार की ड्रायविंग सीट पर बैठे बिना तात्तकालिक चुनौतियों को समझे और उनके व्यवहारिक निराकरण से अनिभिज्ञ होते हुए आप कार चला सकते हैं। कांग्रेस उत्तर प्रदेश के माध्यम से देश में इसी सैद्धांतिक और बचपने की राजनीति को तत्काल लाभ के लिए आंदोलन बनाना चाहती हैं।
लड़की हूँ लड़ सकती हूँ एक विचारवान उद्देश्य हो सकता है, प्रियंका गांधी चाहे तो इसे नारे में भी परिवर्तित कर सकती है। पर क्या उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में इस नारे के भरोसे कोई पार्टी जीत का स्पप्न देख सकती है। व्यवहार में कहा जाए तो एक नारा जो स्थापित होने के लिए वर्षो की मेहनत और तपस्या चाहता है। उससे तत्काल परिणाम प्राप्त करने की कल्पना कांग्रेस का अव्यवहारिक नेतृत्व ही कर सकता है। यह कोशिश वह संगठन कर रहा है जिसके पास अभी अपनी बातों को क्रियान्वित करने के लिए कार्य करता नहीं है। उसके सारे संगठन समाप्त हो चुके है और उसका शीर्ष कमान विचारहीन होकर अव्यवहारिक एवं बचपनें के नारों को गढ़ने में लगा हुआ है।
लड़की हूँ लड़ सकती हूँ जैसे नारे स्वतंत्रता के पूर्व से आज तक बनाये जाते रहे हैं। गांधी युग में एक पूरी सेना होती थी जो इस तरह के वैचारिक नारों को व्यवहारिक बनाने के लिए श्रम करती थी। इन्ही नारों से निकलकर वे लोकप्रिय नारे बनायें जाते थे जो आम व्यक्ति की विचार और भावनाओं को सीधा प्रभावित करते थे, और व्यक्ति आंदोलित होकर लड़ाई के लिए स्वयं को समर्पित कर देता था। आज़ादी के बाद स्वयं संघ के युग में हिन्दू जागरण के नाम पर इसी तरह के नारों का बनाया जाना जारी रहा। जिसका परिणाम केन्द्र में 10 साल के लिए भारतीय जनता पार्टी की सरकार के कथन के रूप में सामने आया। बिच में अन्ना आंदोलन के लिए भी इसी प्रक्रिया का पालन किया गया।
लड़की हूँ लड़ सकती हूँ जैसा नारा क्या उत्तर प्रदेश की ज़मीन पर सबसे पहले पैदा किया जाना जरूरी था। क्या इस नारे के भरोसे पूरे राज्य के चुनाव को छोड़ देना उपयुक्त था। क्या किसी वैचारिक नारे का बोझ अकेले प्रियंका गांधी ढोने में सक्षम थीं। इन सारे प्रश्नों के उत्तर निश्चित ही न कांग्रेस ने सोचे थे और ना ही उनके पास है। चंद चाटूकार और कम्प्यूटर पर बैठकर योजना बनाने विद्वानों ने हिन्दी, अंग्रेजी या रोमन लिपि में इस योजना को तैयार किया होगा और बाल सुलभ उत्प्रेरणा के क्षणों में कांग्रेस के शीर्ष कमान कहे जाने वाले दोनों युवाओं ने उसे आत्मसात कर लिया होगा। यह कुछ ऐसी ही घटना है जैसा राहूल गांधी का भरी लोकसभा में मोदी की सीट पर जाकर उसे गले लगा लेना और स्वयं को प्यार बाटने वाले देवदूत के रूप में स्थापित करने की कोशिश करना। न उस घटना का कोई मायने था और नाहीं इस घटना का।
यदि राजनीति इतनी सस्ती और सरल होती तो इतिहास कांग्रेस के दो शीर्ष नेतृत्व जैसे किरदारों से भरा हुआ होता। लड़की हूँ लड़ सकती हूँ सिद्धांत को प्रचारित करने के लिए आखिर प्रियंका के पास है क्या। सेवा दल, महिला कांग्रेस, युवा कांग्रेस, आदि जैसे सभी संगठन निष्प्राण पड़ें हुए है। स्वयं कांग्रेस के संगठन में इतनी जान नहीं है कि बिना सहारे के उसके पदाधिकारी स्वयं उठकर अपनी नित्य क्रिया के लिए जा सकें। कांग्रेस उन ठूठों को एक समूह बनता जा रहा है जिसमें अब नई कोपलों का निकलना बंद हो चुका है और पुराने कटे और मुरझाये हुये वृक्ष किसी तरह जीवन के अंत में एक बार पुनः हरे बनना चाहते है। इन स्थितियों में प्रियंका गांधी ने यह नारा बुलंद करके स्वयं के भविष्य के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। यदि नारा डूब गया तो समझों कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का एक संभवित चेहरा आभा बिखेरने के पूर्व ही अस्त हो जायेगा।