आया-गया की राजनीति उ.प्र. में शुरू
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अब विधानसभा चुनाव शुरू हो चुके हैं। इसका स्पष्ट संकेत इस बात से मिलता है कि अलग-अलग जाति, धर्मो का प्रतिनिधित्व करने वालें नेताओं ने अपने वर्तमान दल को छोड़कर संभावनाओं वाले दलों में पलायन शुरू कर दिया है। पलायन का कारण निश्चित ही व्यक्तिगत है, परंतु उसे पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित, बेरोजगारों की रक्षा के लिए उठाया गया कदम पर बताया जा रहा हैं।
इस देश के इतिहास में पहली बाद सार्वजनिक मंच से किसी प्रधानमंत्री ने अपनी जाति के घोषणा की है। नरेन्द्र मोदी पिछड़े जाति से संबंध रखते है, इसकी मुनादी उन्होंने स्वयं सार्वजनिक तौर पर की है। क्या किसी भी दल, राष्ट्र या समाज का नेतृत्व स्वयं को किसी विशेष समुह का प्रतिनिधि घोषित करके सामुहिक विकास और विश्वास की बात कर सकता है। यही कारण रहा कि देश में अब तक शासक रहे प्रधानमंत्रियों ने स्वयं को जातिगत् बंधनों से सार्वजनिक तौर पर अलग रखा। यह वैदिक मान्यता है कि राजा का कोई धर्म या जाति नहीं हो सकती, जाति और धर्म घोषित करने के बाद न चाहते हुए भी व्यक्ति पक्षपाती हो जाता है या पक्षपाती की तरह दिखने लगता है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा को छोड़कर भगने वाले डूबते जहाज चुहों की संख्या बढ़ती जा रही है। यह संकेत कर रहा है कि इस बार चुनाव परिणाम कुछ अलग हो सकते है, तभी बदलती हुई हवाओं को देखकर कठित बड़े नेताओं को पलायनवादी रूख दे रहा है। भाजपा से अन्य दलों की और पलायन कर रहें नेताओं की संख्या अभी बढे़गी ऐसा विश्लेषण करने वालों का अनुमान है। दूसरी और पुनः राज्य में सत्ता प्राप्त करने का स्वप्न देखने वाली भाजपा अपनी खेप मिटाने के लिए अन्य दलों पर मौह पाश का जाल फेक रही है। जानने वाले बताते है कि प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी को भाजपा का जनाधार पाँचों राज्यों में कम होता हुआ नज़र आ रहा है। उत्तर प्रदेश में ख़ास तौर पर भाजपा का हार जाना या वर्तमान से कम सीटों पर विजय होना पूरे देश में भाजपा की साख को संकट मे डाल देगी।
वास्तव में किसान आंदोलन की सफलता और किसानों की जीत के आगे कृषि कानून वापस लेने के निर्णय के बाद नरेन्द्र मोदी की साख पर प्रभाव पड़ा है। पिछले सात वर्षो दौरान उनके निर्णयों को चुनौती न देने वाले नेता भी अब इस कमजोरी को भलिभांति समझ गये है कि यदि आंदोलन की जीत भाजपा के वोटों पर असर डालने लगेगी तो मोदी-शाह की जोड़ीं को झुका लेना असंभव नहीं है। किसान आंदोलन के बाद ही केन्द्र सरकार के निर्णयों और गतिविधियों पर तीखी टिका-टिप्पणी और विश्लेषण को दौर शुरू हुआ है।
प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर कोई शेष नहीं बचा है, जो इस अवसर का लाभ उठा कर नई राजनीतिक पारी शुरू करना चाहता हो। संभवतः इसलिये सभी क्षेत्रीय दलों और राजनैतिक विश्लेषकों को पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम का इंतजार है। यदि परिणाम भाजपा की साख को बचाएं रखते हुए नरेन्द्र मोदी को प्रभावशाली घोषित करते है तो विगत् सात वर्षो से चली आ रही नई राजनीतिक परंपरा निरंतर रहेगी और यदि यह भ्रम टूटता है और भाजपा धाराशाही हो जाती है तो इस देश को एक नई राजनीतिक मुहीम देखने को मिल सकती है। वर्तमान के हालात यह है कि आने वाली आशंकाओं से पीड़ित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व किसी तरह अपनी साख को बचाने की कोशिश कर रहा है। इन स्थितियों में दल के कई नेताओं का आंतरिक असंतोष अब खुल कर सामने आने की कगार पर पहुंच चुका है। यह तय है कि यह समय भाजपा के भविष्य के अस्तित्व का है, यह संरक्षित रह पायेगा या नहीं इस पर कोई भविष्यवाणी नहीं कि जा सकती।