मर्यादाओं के जामें से बाहर हो रहा है-संसदीय लोकतंत्र
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर): भारतीय लोकतंत्र में संसदीय आचरण की परम्परा क्रमशः विलुप्त होती जा रही है। अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये राजनैतिक दल जिस तरह सदन की अवमानना और चलते सदन के मध्य उद्दंडता का प्रदर्शन कर रहे हैं। वह यह संकेत देता है कि आने वाले कुछ वर्षो में ही सदन में असंसदीय शब्दों की मात्रा इतनी ज्यादा हो जायेगी कि एक साल में कुछ दिनों तक चलने वाला सदन भी चलाना मुश्किल हो जायेगा।
पिछले दिनों लोकसभा में कांग्रेस के नेता जो मूलतः बंगाली भाषी है, ने अपने कथन के दौरान राष्ट्रपति शब्द का उपयोग करने के बाद दूसरी बार में राष्ट्रपत्नी का उपयोग कर दिया। इसके बाद सदन में जो अभूतपूर्व नाटक हुआ है, उसने यह स्पष्ट कर दिया कि देश के विभिन्न मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिये संसद की परम्परा का निर्वाहन कुछ दिनों के लिए या कुछ घंटों के लिए किया जाता है। यह अनिवार्य नहीं है कि देश के या प्रदेश के ज्वलन्त मुद्दों को सदन की चर्चा का भाग बनाया जाय। सदन की बैठकों के दौरान सत्तापक्ष और विपक्ष के पास जैसे एक पूर्व निर्धारित कलेण्डर होता है और समूचे देश की जनता सदन की कार्यवाही को मूर्खो की तरह किसी नतीजे के इंतजार में अपलक देखती रहती है।
बंगाली भाषी सासंद ने राष्ट्रपत्नी के उद्भोदन के बाद भाजपा की श्रेष्ठ वक्ता कही जाने वाली केंद्रीय महिला मंत्री ने जिस तरह और जिस आवेग में सदन को हिलाया है, उसे शोभनीय तो नहीं कहा जा सकता। सदन की मार्यादा सत्तापक्ष से प्रारंभ होती है, सदन के संचालन की सबसे बड़ी जिम्मेवारी और उसके ससंदीय स्वरूप को बेहतर बनाये रखने की जिम्मेवारी भी सत्तापक्ष की ही होती है। मूलतः सदन की बैठक सत्तापक्ष द्वारा किये गये या किये जा रहे कार्यो के मूल्यांकन के लिए होती है, जिसमें विपक्ष किये जा रहे कार्यो या चल रही गतिविधियों पर सत्तापक्ष की ओर इशारा करके टिप्पणी करता है। इस प्रक्रिया को आजादी के बाद से आज तक चलाया जाता रहा है। सदन में बंगाली सांसद द्वारा राष्ट्रपत्नी कहे जाने की घटना यहां खत्म नहीं हुई, इस मामले को लेकर भाजपा की विद्वान तेज तर्रार स्मृति ईरानी स्वयं विपक्ष की नेता सोनिया गांधी से उलझ गई।
संसदीय प्रक्रियाओं के जानकार इस घटना को सर्वाधिक दुर्भाग्य पूर्ण मानते हैं। जब कोई केन्द्रीय मंत्री सदन स्थगित होने के बाद आक्रोशित होकर अपना आपा इस हद तक खो दे, कि विपक्ष की वरिष्ठ सांसद और नेता पर अशोभनीय टिप्पणी करते हुये आक्रमण मुद्रा में आ जाय।
यह सदन है, इस सदन की परम्पराओं का पालन कराना और सत्तापक्ष को नियंत्रण में बनाये रखना, सदन के नेताओं का दायित्व होता है। इस खबर के लिखे जाने तक केबिनेट मंत्री स्मृति ईरानी को भाजपा संसदीय दल के नेता ने कोई निर्देश दिये हो, ऐसा ज्ञान नहीं हुआ है। यह तय है कि सदन में बहुमत भाजपा का है, पर यह बहुमत जीवन भर के लिये नहीं है। सत्ताओं को बदलते हुये सदन ने कई बार देखा है, यदि इन्ही परम्पराओं को संसदीय कार्य प्रणाली में सदन के अंदर स्वीकार कर लिया गया, तो आने वाला भविष्य अंधकार में नजर आता है। यदि गलत हिन्दी बोलने वालों के साथ जो कि अन्य भाषाओं और प्रान्तों से आये है। यह व्यवहार निरन्तर रहा तो सदन की कार्यवाही में तमिल, तेलगु कन्नड, बंगाली, गुजराती और जाने किन-किन भाषाओं के अनुवादकों को हमें रखना होगा। यह भूल जाना होगा कि हिन्दी को हम राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करना चाहते है, मान्यता दिलाना चाहते है। क्योंकि इस संसदीय आक्रोश से बचने के लिए आने वाले कल में हर सांसद अपनी मात्र भाषा में संसदीय प्रक्रिया में भाग लेगा और हिन्दी को राष्ट्र भाषा स्वीकार करने का स्वप्न एक स्वप्न बन कर ही रह जायेगा। सांसदों में सहनशीलता नहीं बची, वे हर अवसर का लाभ अपनी छोटी राजनीति के लिये करना चाहते है। यह संभवतः देश के लिए देश की भाषायीं विखंडन के लिये एक महव्पूर्ण आधार बनने जा रहा है ।