मूर्तिकार का सपना
एक मूर्तिकार ने एक रात विचित्र स्वप्न देखा। वह किसी छायादार पेड़ के नीचे बैठा था। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उसने उसे उठा लिया फिर उसे सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा- मुझे मत मारो। दूसरी बार वह रोने लगा। मूर्तिकार ने उसे छोड़ दिया। फिर उसने अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे तराशने लगा।
वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमें से एक एक देवी की मूर्ती उभर आई। मूर्ति वहीं पेड़ के नीचे रख वह आगे चला गया। फिर कुछ समय बाद वह उसी पुराने रास्ते से गुजरा। उस स्थान पर पहुंचकर उसने देखा कि उस मूर्ति की पूजा-अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी। भीड़ लगी है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियां लगी हैं। जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर उसने देखा कि उसकी बनाई मूर्ति के सामने न जाने क्या-क्या रखा है। जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने, उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक ओर पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़ -फोड़ कर देवी की मूर्ति पर चढ़ा रहे है। तभी मूर्तिकार की नींद टूट गई। वह सपने के बारे में सोचने लगा।
उसने निष्कर्ष निकाला कि जो लोग थोड़ा कष्ट झेल लेते हैं, उनका जीवन बन जाता है। विश्व उनका सत्कार करता है। पर जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता।