(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
आने वाले दिनों में जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले है, वहां चल रही तैयारियों की ख़बरों से सभी समाचार माध्यम पूरे तरह भरे हुये है। इन समाचारों के मध्य यदि तैयारियों के मामले में कोई राज्य सबसे कमजोर नज़र आ रहा है तो वह मध्यप्रदेश है। ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश के चुनाव को सीमित संख्या में होने वाले विधानसभा चुनाव के मध्य भी महत्व नहीं मिल रहा। या यह कहले कि कांगेस और भाजपा दोनों ही राजनैतिक दलों ने मध्यप्रदेश के चुनाव को अपनी प्राथमिकता पर नहीं लिया है। कहा जाता है कि युद्ध जितना करीब हो सेन्य बलों की सतर्कता एवं तैयारियों का बार-बार परिक्षण कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि अंतिम क्षणों में चलने वाले हथियार अपना वहीं पैनापन लिये हुये है या नहीं जिसकी उम्मीद की जाती है। मध्यप्रदेश वह अनोखा राज्य है जहां भाजपा एक अंतर्कलह से गुजर रही है, और कांग्रेस पूरी शांति के साथ सन्नाटे में बैठकर संभवित युद्ध की आंधी को उसके न्यूनतम स्तर पर कम से कम चुनावी चर्चाओं में बनाये रखना चाहती है।
मध्यप्रदेश में चुनावी तैयारियों का आलम यह है कि लन्च के साथ होने वाली राजनैतिक बैठकों के अतिरिक्त किसी भी बड़ी चुनावी योजना को किसी भी स्तर पर कोई राजनैतिक दल चर्चा के लिये ही स्वीकार नहीं कर रहा है। भाजपा ने चुनावों के लिये अधिकांश प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है, परिणामतः आंतरिक विद्रोह की ज्वाली भड़क उठी। विभिन्न क्षेत्रों में दावेदारी प्रस्तुत करने वाले स्वयंभू नेताओं ने अपने अस्तित्व के संरक्षण के लिये लिये एक वैचारिक युद्ध अपने ही राजनैतिक दल के विरूद्ध शुरू कर दिया। हिन्दू धर्म शास्त्र के अनुसार यदाकदा आचरण करने वाली कांग्रेस ने इस बार के श्राद्ध अवधि को हथियार बनाकर अपने उम्मीदवारों की सूची को हाथ भी नहीं लगाया है। जिस राज्य में एक माह के बाद चुनाव दस्तक देने वाले है, वहां के कांग्रेस प्रत्याशी को अभी तक यह नहीं मालूम कि सैकड़ों सर्वेक्षण के उपरांत उनके प्रभाव और उनकी राजनीति स्थिति का आकलन प्रदेश और केंद्रीय संगठन के सामने क्या है। एक संभावना यह नज़र आती है कि जब भी कांग्रेस को अपनी टिकिट घोषित करनी पड़ी, भाजपा से एक बडा विद्रोह कांग्रेस के अंदर पैदा होगा। कांग्रेस ने इन बार टिकिट की चयन की प्रक्रिया को सर्वेक्षण पर आधारित कर उसमे आम कांग्रेसजन की भूमिका को सीमित कर दिया है। मतदाताओं के रूझान और किसी विशेष उम्मीदवार के प्रति मतदाताओं के आकर्षण पर कांग्रेस संगठन चर्चा तक करने को तैयार नहीं है। यदि कोई नया उम्मीदवार दावेदारी प्रस्तुत भी करता है तो उसे स्पष्ट कर दिया जाता है कि उसके बारे में सर्वेक्षण करवा लिया जायेगा और उसका टिकिट सर्वेक्षण के नतिजे पर ही आधारित है। 
कांग्रेस में जमीन से जुड़ने की लालसा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की रैलियों तक सीमित रह जायेगी इसकी सम्भावना कही अधिक है। कांग्रेस को यह विश्वास है कि 18 साल की भाजपा सरकार से ऊब चुका मतदाता इस बार स्वयं बदलेगा और परिवर्तन का यह संकेत मतदान पेटियों में कांग्रेस के पक्ष में दर्ज होगा, ऐसा होता है या नहीं इसकी कोई गांरटी किसी के पास नहीं हैं। परंतु अज्ञात ईश्वरीय शक्ति के भरोसे पहली बार राज्य में कांग्रेस अपने भविष्य को सुरक्षित देख रही है। अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रो में टिकिट चाहने वाले उम्मीदवारों ने अपना प्रचार अभियान अपनी व्यक्तिगत वित्तीय क्षमताओं के अनुसार प्रारंभ कर दिया है। कांग्रेस अगले चुनाव में किसी बड़े वित्तीय प्रबंधन के साथ नहीं उतरने जा रहीं। ख़बर यह है कि कांग्रेस को उम्मीदवार स्वयं चुनाव के दौरान वित्तीय पोषण की व्यवस्था करनी होगी। वास्तव में कांग्रेस प्रचार अभियान से दूर हटकर अपने भविष्य को एक अज्ञात शक्ति के भरोसे सुरक्षित मान रही है। संभवतः यह प्रयोग मध्यप्रदेश ही नहीं देश के किसी भी प्रदेश में पहली बार किया जा रहा है। इसके साकारात्मक परिणामों के प्रति अश्वस्त होकर भाजपा नये विधानसभा की विजय मुकुट को धारण कर अपने दीर्घकालीन जीवन की कल्पना कर रही है।