(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्यप्रदेश चुनाव से पहले सैकड़ों सर्वेक्षण अलग-अलग स्तर पर कांग्रेस करा रही है, और लगभग इतने ही सर्वेक्षण भाजपा की ओर से किये जाने हैं या किये जा हैं। सर्वेक्षण के माध्यम से प्रदेश की नब्ज़ को टटोलने की कोशिश इतने बड़े पैमाने पर कभी नहीं हुई। सारे सर्वेक्षण कम्पनियों अन्य सक्षम संस्थाओं के माध्यम से कराये जा रहे हैं, उसमें राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर के कई लोग शामिल है। प्रतिशत के आधार पर परिणामों को देखकर दोनों ही राजनैतिक दल इस बात के लिये अश्वत है कि सरकार हमारी ही बनेगी।
पिछले तीन महीनों के दौरान कांग्रेस के द्वारा इतने सर्वेक्षण करा लिये गये हैं कि मध्यप्रदेश के प्रत्येक मतदाता की राय कागज़ों में कांग्रेस के पास आ चुकी है। सभी सर्वेक्षणों में इस बात का उल्लेख है कि व्यवस्था विरोधी बोर्ड भाजपा की परेशानी का कारण बन सकते हैं। 18 वर्ष तक एक ही चेहरे को मुख्यमंत्री के रूप में देखकर मतदाता उब चुका है। इसके साथ ही भाजपा की योजनाओं की घोषणा और उनके क्रियान्वयन के मध्य बहुत बड़ा अंतर है। वास्तव में जो योजना घोषत की गई है उसका लाभ तो छोड़िये उन योजनाओं की विस्तृत जानकारी आम आदमी तक नहीं पहुंच पाई है। कांग्रेस के द्वारा कराया गया यह सर्वेक्षण आगामी विधानसभा चुनाव के पहले एक बहुत बड़ा रणक्षेत्र प्रचार-प्रसार के लिये भाजपा के विरूद्ध खोलता है। यही कारण है कि मतदाताओं का यह आक्रोश उसे अपने पक्ष मे वोट में बदलता हुआ नज़र आ रहा है।
दूसरी ओर भाजपा के सर्वेक्षण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि पार्टी में आंतरिक विद्रोह बड़े पैमाने पर हैं। सिंधिया के साथ आये हुये कांग्रेस के पूर्व नेता भाजपा के समर्पण रखने वाले कार्यकर्ताओं पर भारी पड़ रहें हैं। प्रत्येक सर्वेक्षण यह दिखाता है कि सिंधिया समर्थक मंत्रियों द्वारा कांग्रेस की सरकार गिराने के बाद किस तरह मंत्री मंडल में रहते हुये सम्पतियां अर्जित की गई, और किस तरह भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं को उपेक्षित किया गया। कांग्रेस छोड़कर आये हुये नेताओं की साख भी इस चुनाव में वास्तव में दांव पर लगी है। इस चुनाव के दौरान चल रही हवाओं में और उनकी जीत को भाजपा की इज्ज़त का सवाल बनने के कारण सुनिश्चित किया गया। परंतु जिन लोगों ने बलिदान देकर इन अप्रवासी नेताओं को अपने दल में भारी मन से पाला-पोसा उन्हें अब अपने अस्तित्व की चिंता सता ने लगी है। भाजपा के साथ सबसे बड़ी समस्या सर्वेक्षणों में यह भी नज़र आ रही है कि इतने लम्बे समय तक शासन करने बाद अधिकारियों और कर्मचारियों का एक बड़ा गुट क्रमशः उनके विरोध में होता चला जा रहा है। दूसरे अर्थो में कहें तो इस बार भाजपा चुनावी रणनीति को शिवराज सिंह के भरोसे ले रही है। संगठन और सत्ता में जागरूक रहकर एक संग्राम करने वाले दल के रूप में नहीं। परिणम यह है कि टूटती हुई भाजपा को एकत्र करने की कोशिशें बार-बार असफल हो रही है। मुख्यमंत्री का चेहरा बहुत पुराना हो चुका है और प्रदेश अध्यक्ष का व्यवहार कार्यकर्ताओं के प्रति सामान्य नहीं है, ये शिकायते आम हो चुकी है। भाजपा की घोषणायें जो चुनाव के ठीक पहले मंच पर घुम-घुम कर की जा रही है, कोई व्यापक असर मतदाताओं पर नहीं डाल रही, यह बात बार-बार सर्वेक्षण में सामने आ रही है। सर्वेक्षण में यह भी स्पष्ट हो रहा है कि मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह ने अब वो आकर्षण नहीं रहा, जो भाजपा को जीत दिला पाने में सक्षम था।
राजनीति की जानकार बतातें हैं कि पिछले चार चुनावों के दौरान कांग्रेस ही भाजपा की जीत के लिये न सिर्फ प्रार्थना करती थी बल्कि सहयोग भी करती थी। इस सहयोग के पीछे कांग्रेस की कुछ नेताओं का नीजि स्वार्थ और संर्कीण सोच था। आपसी मेलजोल के सहारे बार-बार सत्ता में भाजपा को प्रमुखता के साथ स्थान मिलता रहता था और विपक्षी दल कांग्रेस के कुछ नेताओं की सुबेदारी लगातार कायम रहती थी। जानकारों का मानना है कि इस बार स्थितियां विपरीत है, आपसी समझ-बुझ पर सोशल मीडिया से लेकर सामान्य कार्यकर्ता तक निगाहे बड़े नेताओं की हर हरकत पर टिकी हुई है। इसके अतिरिक्त वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रहते हुये दोनों के गले में हाई कमान की तलरवार लटक रही है कि पराजय को स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं है। राजनीति की इस शतरंज में फिलहाल सर्वेक्षणों के माध्यम से अपने-अपने हाई कमान को अपनी स्थिति अधिकतम मजबूत दिखाने की प्रतिस्पर्धा जारी है। उम्मीद है कि इस बार दोनों दलों द्वारा कम से कम एक हजार से अधिक सर्वेक्षण चुनाव पूर्व तक पूरे कर लिये जायेंगे।