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(भोपाल) : उन्होंने  जब से होश संभाला तो  हर एक नजर में कमोबेश एक सा भाव देखा! सड़क से गुजरते हुए उन पर नजर डालने वाला हर आदमी उन्हें कुछ पैसे देकर, कुछ देर के लिए ही सही, अपनी लाड़ली बनाना चाहता था।  वह बनी भी। सामाजिक परम्परा और पापी पेट के लिए उन्होंने वह सब भी किया जिसे समाज हेय नजर से देखता रहा है।लेकिन अब वे चाहती हैं कि उन्हें भी "लाड़ली बहन" का दर्जा मिल जाए। इससे कम से कम कुछ मदद तो मिल जायेगी!जिससे शायद उनकी जिंदगी थोड़ी आसान हो जाए!
 लेकिन जो सरकार  आजकल "दिया" हाथ में लेकर घर घर में "लाड़ली बहनों" को खोज रही है वह भी इनकी ओर देखने को तैयार नहीं है! बहनों की जिंदगी खुशहाल बनाने के लिए बड़े बड़े दावे करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी उनकी मदद को आगे नहीं आ रहे हैं।
 चौंकिए मत! मैं जिन "बहनों"  की बात कर रहा हूं वे प्रदेश के बांछड़ा और बेडिया समाज से आती हैं। इनके अलावा वे महिलाएं  भी हैं जिनका समय पर विवाह नही हुआ।या जो बलात्कार का शिकार होने की वजह से उपेक्षित और एकाकी जीवन जी रही हैं।
 विज्ञापन के इस युग में पूरा देश और यहां तक कि दुनिया जानती है कि मध्यप्रदेश सरकार लाड़ली लक्ष्मी योजना की अपार चुनावी सफलता के बाद विधानसभा चुनाव से पहले "लाड़ली बहना" योजना लाई है।अभी तक लाड़ली लक्ष्मियों के "लाड़ले मामा"  रहे शिवराज सिंह चौहान अब एक हजार रुपए हर माह देकर "लाड़ली बहनों" के भाई बनना चाहते हैं।उन्होंने पिछले बजट सत्र में इस योजना का ऐलान किया।साथ ही बजट में इसके लिए 8 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया।तब से अब तक पूरा सरकारी अमला प्रदेश भर में लाड़ली बहनों को खोज रहा है।खुद मुख्यमंत्री भी इसी काम में लगे हैं।उनका दावा है कि उनके दिए एक हजार रुपए उनकी लाड़ली बहनों की जिंदगी में क्रांतिकारी बदलाव लाएंगे।इन एक हजार रुपयों से बहनें आत्मनिर्भर हो जाएंगी!
 सरकारी सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री की लाड़ली बहन बनने के लिए अभी तक सवा करोड़ से ज्यादा महिलाओं ने आवेदन दिए हैं।
 इस योजना का लाभ लेने वाली महिलाओं के लिए सरकार ने कुछ शर्ते रखी हैं।इनमें पहली शर्त यह है कि महिला की उम्र 23 से 60 वर्ष के बीच होनी चाहिए।उसे विवाहित होना चाहिए।परिवार की आर्थिक स्थिति का भी दायरा तय किया गया है।विधवा और परित्यक्ता महिलाओं को भी इसमें शामिल किया गया है।
 लेकिन करीब 18 साल से राज्य की कमान संभाल रहे  लाड़ले भाई शायद यह भूल गए कि उनके राज्य में बांछड़ा और बेडिया समुदाय भी बड़ी संख्या में हैं।इन समुदायों की परंपराएं कुछ ऐसी हैं जिनमें महिलाओं को मजबूरन "देह व्यापार" करना पड़ता है।इस समुदाय के लोग मंदसौर,नीमच,रतलाम,ग्वालियर,मुरैना और सागर आदि जिलों में बसे हुए हैं।हालांकि आजादी के बाद से इन समुदायों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिशें की जाती रही हैं।लेकिन "अमृत काल" आ जाने के बाद भी ऐसा हो नही पाया है।इन समुदायों की महिलाएं आज भी नर्क भोगने को मजबूर हैं।
 मुख्यमंत्री ने जब लाड़ली बहना योजना का ऐलान किया तो इन "लाड़लियों" को लगा कि उन्हें भी मदद मिलेगी।लेकिन इस योजना की पहली शर्त है महिला का विवाहित होना!इसके प्रमाण के तौर पर उनकी समग्र आईडी मांगी जाती है।जिसमें परिवार का पूरा विवरण होता है।बांछड़ा और बेडिया समुदाय की महिलाओं के पास समग्र आईडी तो है!उसमें बच्चों का तो उल्लेख है पर पति का नाम नहीं है।इसलिए वे विवाहिता की श्रेणी में नही गिनी जाती हैं।उनका सच समाज से लेकर सरकार तक जानती है।पर कभी किसी ने उनके बारे में नही सोचा।
 एक मोटे अनुमान के मुताबिक प्रदेश में ऐसी महिलाओं की संख्या हजारों में है।वे अपनी सामाजिक मजबूरी के चलते लाड़ली बहना योजना में शामिल नहीं की जा सकती हैं।
 पता चला है कि मंदसौर,नीमच और रतलाम जिलों में तो बड़ी संख्या में महिलाएं इस योजना में पंजीकरण कराने को भटक रही हैं।इस वजह से नीमच के कलेक्टर ने सरकार से मार्गदर्शन भी मांगा है कि "अविवाहित श्रेणी" में आने वाली इन महिलाओं के बारे क्या किया जाए।क्योंकि नियम उनके खिलाफ हैं।लेकिन वे हैं..और बड़ी संख्या में हैं।उनके परिवार भी हैं।बस रिकॉर्ड पर पति का नाम नहीं हैं।एक दृष्टि से देखा जाए तो सबसे ज्यादा मदद की जरूरत इन्हीं महिलाओं को है।
 इनके अलावा प्रदेश में बड़ी संख्या में ऐसी महिलाएं भी हैं जो किसी कारणवश अविवाहित रह गईं।कुछ ऐसी भी हैं जो बलात्कार और दुराचार की शिकार होने के कारण मजबूरन एकांकी जीवन बिता रही हैं।
 इन महिलाओं की समस्या का संज्ञान प्रदेश के मानव अधिकार आयोग ने लिया है।बताते हैं कि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस मनोहर ममतानी ने सरकार को पत्र लिख कर कहा है कि लाडली बहना योजना में बांछड़ा, बेडिया और सांसी समाज की महिलाओं को भी शामिल किया जाए।
 लेकिन लाड़ली बहनों की खोज में जुटी सरकार ने इसे भी अनदेखा कर दिया है।सरकारी अफसर कह रहे हैं कि जो नियम बन गए सो बन गए। उनमें कोई बदलाव नहीं होगा।कोई कुछ भी कहता रहे।
 मजे की बात है कि सरकारें लगातार यह दावा करती रही हैं कि वे वेश्यावृत्ति रोकने के लिए कटिबद्ध हैं।अब तक सैकड़ों योजनाएं इन समाजों के पुनर्वास के लिए चलाई गईं हैं।बड़े बड़े दावे भी किए जाते रहे हैं।इसी सरकार का दावा है कि उसने 2023 - 24 के अपने बजट में महिलाओं के लिए कुल एक लाख, दो हजार,976 करोड़ के प्रावधान किए हैं।जो कि पिछले साल के बजट से करीब 22 प्रतिशत ज्यादा है।सरकार इन प्रावधानों को महिलाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी बताती है। आंकड़ों के हिसाब से सरकार चुनावी वर्ष में अपने कुल बजट का करीब एक तिहाई "नारी कल्याण" पर खर्च करने वाली है।
 मजे की बात यह है कि विधानसभा में बजट पढ़ने वाले वित्तमंत्री भी उसी मंदसौर क्षेत्र से आते हैं जिसमें बांछड़ा जाति के लोग बहुतायत में हैं।लेकिन पात्रता की शर्ते तय करते समय वे इस समाज की महिलाओं को भूल गए!
 यह विडंबना ही है कि नारी कल्याण का दावा करने वाली सरकार की सूची में वे महिलाएं नहीं हैं जिनकी आय का मुख्य जरिया उनका जिस्म ही रहा है!"नारी" के लिए लाखों करोड़ खर्च करने का दावा करने वालों की नजर में उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है।शायद इसकी एक वजह "वोट" भी है।अगर उनके वोट भी कहीं निर्णायक स्थित में होते तो बात कुछ और ही होती।वैसे भी चुनावी वैतरणी पार करने के लिए "करोड़ों" पर नजर है।हजारों की गिनती कौन करे?भले ही वे सड़कों पर अपना जिस्म बेचें! इसीलिए तो कहते हैं कि अपना एमपी गज्जब है। है कि नहीं!
अरुण दीक्षित की ओर से साभार ..