(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव जीतने के लिये कांग्रेस एक नये रणनीतिकार सुनील कानुगोलू को जिम्मेवारी सौप रही है। सुनील पूर्व में इस देश के विख्यात रणनीतिकार प्रशांत किशोर के साथ उनकी कम्पनी के साथ जुड़े रहे हैं। वर्तमान में वे कर्नाटक में कांग्रेस की नाव पार लगाने के लिये एक विशिष्ट रणनीति पर काम कर रहे हैं। सुनील का ट्रेक रिकार्ड काफी बेहतर रहा है, यहां तक कि कर्नाटक में चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ होने के पहले उनके द्वारा किये गये कई राजनैतिक प्रयोग वर्तमान में कांग्रेस को एक जमीनी आधार प्रदान कर रहें हैं। 
राजनीति के जानने वाले वर्षो से इस बात पर शोध कर रहे हैं कि, रणनीतिकारों की बनाई गई योजना क्या राजनैतिक दलों के लिये तब भी उपयोगी और परिणाम दायक हो सकती है। जब संबंधित राजनैतिक दल जमीन से अपनी पकड़ पूरी तरह खो चुका हों। क्या चुनाव के दौरान ऐसी रणनीति सफल हो सकती है, जो व्यक्तिवाद, परिवारवाद या व्यवसायिक स्वार्थ से प्रेरित हो। रणनीतिकारों द्वारा बनाई गई योजना की सफलता क्या इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि संबंधित राजनैतिक दल मानव श्रम शक्ति के भरोसे अपने कार्यकर्ताओं को जोश से भरकर आम आदमी के मध्य उसकी संवेदनाओं को समझने और पकड़ने के लिये सक्रिय कर सकें। 
रणनीतिकार का दायित्व परिस्थितियों और अवसरों के अनुसार नये यांत्रिक या कार्मिक उन अवसरों का निर्माण करना तो हो सकता है, जो संबंधित दल के लिये एक माहौल बनाकर जन आकांशाओं को आंदोलित कर सकें। परंतु इस तरह जागरूक किया हुआ मतदाता बिना किसी कार्यकर्ता या निर्धारित कार्यक्रम के मार्गदर्शन के बगैर किस दिशा में जायेगा यह समझ पाना असंभव है।
वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में मिली हुई अभूतपूर्व सफलता को इन रणनीतिकारों के पक्ष में डाला जाता है। तात्कालिक परिस्थितियां कांग्रेस के विरोध में थी, अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद सामान्य मतदाता भ्रष्टाचार के विरूद कांग्रेस से खासा नाराज था। इसी बीच नरेन्द्र मोदी ने रणनीतिकारों के मदद से एक ऐसी योजना को जन्म दिया जो आम व्यक्ति को कांग्रेस या अन्य राजनैतिक दलों की अपेक्षा अपने अधीक करीब नजर आयी। इसके बाद के चुनाव में रणनीतिकारों के स्थानों पर स्वयं नरेन्द्र मोदी का चेहरा राष्ट्रीय विश्वास का प्रतीक बन गया, और भाजपा पुनः चुनाव जीत गई। इन रणनीतिकरों की भूमिका को लेकर हमेशा संदेह बना रहता है। विभिन्न माध्यमों से हासिल किये गये आकड़े और सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार की गई योजना कागजों में तो परिणाम मूलक नज़र आती है। परंतु उन स्थितियों जब मध्यप्रदेश राज्य में चुनाव केवल दो नेताओं के भरोसे लड़ा जाना अनुमोदित है, शेष नेताओं को नेपथ्य में डाल दिया गया है। कार्यकर्ताओं को कोई कार्यक्रम कोई योजना अभी तक नहीं सौपी गई है। इन स्थितियों में रणनीतिकार राज्य में कौन सी नई चेतना या चमत्कार पैदा कर देंगे, जो कांग्रेस को बहुमत पर लेजाकर खड़ा कर देगी।
चुनाव बहुत करीब आ चुके है, परंतु कांग्रेस के अलग-अलग खेंमे अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिये छोटे-छोटे आंदोलनों और धर्मो का सहारा ले रहे हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व हमेशा के तरह राज्य के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है और प्रदेश नेतृत्व भी कम्प्यूटर के माध्यम से किये गये सर्वेक्षण और कार्पोरेट राजनीति के माध्यम से राजनीति के संचालन की कोशिश कर रहा है, कुल मिलाकर मैदान में कांग्रेस के पास वास्तव में कुछ नहीं है। अब एक रणनीतिकार, इस खाली पड़े हुये बंजर मैदान में कांग्रेस की विजय की फसल पैदा करने के लिये, अपने यांत्रिक संसाधनों के साथ विधाता बनकर पैदा होना चाहता है, जो प्रतिदिन आकड़े तो दे सकता है पर जनभावनाओं को पार्टी के पक्ष में किस हद तक परिवर्तित कर पाता है, इसमें संदेह है। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश के चुनाव अब दो नेताओं और एक रणनीतिकार के भरोसे लडे़ जाने हैं। इसमें आम व्यक्ति की सहभागिता सिर्फ कम्प्यूटर के आकड़ों तक सीमित है।