(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
आदिवासियों के उत्थान के लिये सैकड़ों दांवे किये जाएं। उन्हें सामाजिक, आर्थिक कानूनी मदद देने के लिये हजारों सरकारी योजनाओं की घोषणा हो। पर जमीन में आदिवासी एक वोट बैंक मात्र है। जिसे बेहलाकर, सपने दिखाकर उसके वोट बंटोरें जा सकते हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में आदिवासियों के दम पर ही सरकारें बनाने का दावा करने वाले राजनैतिक दल, आदिवासियों के पक्ष में सर पर मुकुट लगाकर, उनके परम्परागत वस्त्रों को धारण करके, उल्टा-सीधा नृत्य कर, इस समाज के साथ अपनी संलग्नता को प्रदर्शित करते हैं। परंतु जब वास्तव में आदिवासियों की सुरक्षा और आदिवासी महिलाओं की आबरू को बचाने का प्रश्न खड़ा होता है तो राजैनतिक दल दूर-दूर तक नजर नहीं आतें। 
इंदौर के पास महू के जाम गेट से एक किमी दूर माधौपुरा गांव हैं। जहां वोट बैंक बने हुये यह आदिवासी भैरूलाल मदन छारेल के शव के सामने विलाप कर रहें हैं। 21 वर्ष के इस नौजवान को किसी ओर ने नहीं मारा, बल्कि मध्यप्रदेश की हत्यारी पुलिस ने इस आदिवासी के परिवार को बेसहारा कर दिया। यह घटना 15 मई की रात महू के पास डोंगरगांव चैकी के सामने हुई। यह सत्य है कि जाने-अन्जाने भैरूलाल पुलिस फायरिंग का शिकार हो गया। पर यह सत्य है कि इस परिवार में गरीबी इस हद तक थी कि अपना जीवन चलाने के लिये भैरूलाल को अपना मोबाइल भी गिरवी रखना पड़ा था। इस क्षेत्र में एक आदिवासी युवती के साथ हुये गलत व्यवहार के कारण भीड़ जमा थी, और दोषी संभ्रांत अपराधियों के विरूद्ध कार्यवाही की मांग कर रही थीं। भैरूलाल की मौत पेट में गोली लगने के कारण हुई बताई जाती है। भैरूलाल का पेट गोलीबारी के कारण छलनी हो गया था। उसके पेट को कपड़े से लपेटकर अस्पताल पहुंचाया गया, जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।
राज्य शासन ने अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिये मुआवजे का ऐलान कर दिया है और सरकार इस बात पर चिंतित है कि ठीक चुनाव के पहले आदिवासी वर्ग के साथ हुई इस पुलिस प्रताड़ना के कारण कहीं राज्य में उसे मिलने वाले आदिवासी वोटों पर फर्क न पड़ जाय। दूसरी ओर कांग्रेस के कागजी नेता इस घटना का पूरा राजनैतिक लाभ लेने के लिये कृतज्ञ परिवार को 5 करोड़ रूपये आर्थिक सहायता की मांग कर रहें हैं। भैरूलाल जैसा गरीब एक प्रतीक है, उस आदिवासी संस्कृति का जिसका दोहन करने के लिये मध्यप्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस और भाजपा के स्थापित नेता केवल मुआवजे का मरहम लेकर या मृत्यु की घटना को तुल देने का अधिकार स्वयं लेकर राजनीति स्वयं करते हैं। उक्त घटना के संदर्भ यह बताया जाता है कि भैरूलाल तो काम से लोटकर घर जा रहा था, रास्ते में लगी हुई भीड़ को देकर वो तमाश-बीन बन गया। इसी बीच पुलिस की फायरिंग में आदिवासी भैरूलाल को उसके नौ व्यक्तियों के परिवार से अलग कर दिया। आदिवासियों के शोषण की यह दास्तान पूरे राज्य में निरन्तर दोहराई जाती है। भाजपा और कांग्रेस के किसी आदिवासी नेता ने कभी अपने अधिकारों की कोई लड़ाई इन मजदूरों की खातिर नहीं लड़ी। इस वर्ग से जो भी नेता इन दोनों में पैदा हुये, उनकी विशाल कोठियां, शराब बनाने की फेक्ट्री बनाने के लायसेंस, बड़े-बड़े रिसोर्ट, होटल इन गरीब आदिवासियों को मुह चिढ़ाते हुये नजर आते हैं। वास्तव में आदिवासी एक वोट है जिसे हासिल करने के लिये ठीक मतदान के पहले कच्ची शराब और अन्य कुछ जरूरी साधन आदिवासी क्षेत्रों को उपलब्ध कराना जरूरी है। इसके अलावा पांच साल की सत्ता के दौरान आदिवासियों के नाम पर सरकारें और उनके स्थापित नेता अपना पेट भरते रहते हैं। जिससे इन आदिवासियों को आजादी के 75 साल बाद कुछ भी हासिल नहीं हो पाया। स्वतंत्र भारत में आदिवासी संस्कृति केवल दिखावें और विशेष अवसरों में नृत्य एवं संस्कृति प्रचार के काम आती है। विभिन्न सरकारी योजनाएं कागजों में जन्म लेती हैं और कागजों में ही समाप्त हो जाती है। यह बात अलग है कि प्रत्येक योजना पढ़े लिखे षंडयंत्रकारी नेताओं और अधिकारियों के परिवार को एक मजबूत आर्थिक आधार प्रदान कर जाती है। परंतु मूल आदिवासी जहां आजादी के पूर्व खड़ा था आज भी वहीं खड़ा नजर आता है। भैरूलाल जैसी मौत के बाद जांच की प्रक्रिया शुरू होती है, जो कब समाप्त हो जाती है कोई नहीं जानता। कुल मिलाकर मरने के लिये आदिवासी है और उत्सव के लिये भी आदिवासी की ही संस्कृति है। इसका इस वर्ग के विकास और उत्थान से कोई लेना देना नहीं है। वास्तव में कोई राजनेता भैरूलाल को वास्तविक श्रद्धांजलि देने की क्षमता ही नहीं रखता।