(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
निर्जीव पड़े हुये कांग्रेस संगठन को आज अपने परम्परागत गढ़ नार्थ-ईस्ट में तीन राज्यों में बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा। छत्तीस सौ किमी की पद यात्रा, इन राज्यों में कोई वैचारिक असर डाल सकीं और नाही किसी राष्ट्रीय नेता ने इस राज्यों में चुनाव को प्राथमिकता के आधार पर गंभीरता से लेना उचित समझा। कांग्रेस की हालत ऐसी है कि हर बार तमाचा खाकर वह लोक नृत्य की मुद्रा में स्वयं को राष्ट्रीय घोषित करने का प्रयास करती है। सच तो यह है कि भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चलाई गई राजनैतिक मुहिम के तूफान के आगे कांग्रेस कहीं नहीं ठहर रही। नार्थ-ईस्ट में मिली हुई इस पराजय से कांगेस के माथे पर चिन्ता की कोई लहर नहीं है। बर्फ के पहाडों में अपनी बहन के साथ स्कूटर चलाने में व्यस्त कांग्रेस के हाई कमान कहे जाने वाले राहुल गांधी वर्तमान में अपने दल की अन्य राज्यों में होने वाली पराजय का मजबूती का सामना करने के लिये तैयार हैं। 
अंततः कांग्रेस नार्थ-ईस्ट के तीन राज्यों में चुनाव हार गई। बेशर्मी यह है कि कभी राष्ट्रीय दल होने का दावा करने वाली पार्टी के नेता परम्परागत क्षेत्र में मिली इस पराजय को सामान्य ढंग से ले रहे है। कांग्रेस का आकार स्थायी रूप से धीरे-धीरे छोटा होता जा  रहा है। भविष्य में होने वाले कर्नाटक चुनाव में पराजय का समना करना कांग्रेस का अगला लक्ष्य है। इसके बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस निष्क्रिय होने का अपना रिकार्ड कायम रखने में सफल होगी ऐसी उम्मीद की जानी चाहिये।
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे ने यह घोषणा जरूर कर दी है कि भाजपा के विरूद्ध सभी विरोधी दलों को मिलकर मोर्चा बनाना चाहिए। इसके लिये कांग्रेस वर्तमान में प्रधानमंत्री बनने की कोई शर्त नहीं रखेगी। वयोवृद्ध खड़गे जी को इस बात का आभास है कि इस देश के सभी प्रांतों से कांग्रेस के पैर उखड़ चुके है। विचार बनाने और योजना बनाने की शक्ति समाप्त हो चुकी है। बड़े नेताओं की कोई भी पद यात्रा अब केवल मनोरंजन की वस्तु रह गई है। समस्याओं के राष्ट्रीयकरण की नहीं। नार्थ-ईस्ट में मिली पराजय का आकलन करने पर यह स्पष्ट होता है कि सच में कांग्रेस पूरे देश से समाप्ति की ओर है। कार्नाटक राज्य में भविष्य के परिणामों का आकलन करने वाले यह मानते है कि भाजपा को ही बड़ा फायदा मिलने की उम्मीद है। वहीं छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की आतंरिक लड़ाई पराजय का कारण बन सकती है। जहां तक सवाल मध्यप्रदेश का है बिना किसी योजना के कागजों में युद्ध लड़ने वाले कांग्रेस की जीत का स्वप्न जरूर देख सकते हैं, पर धरातल में कांग्रेस जमीनी कार्यकर्ताओं के स्तर पर आपस में ही पैदा हुये विवादों उलझी हुई है। 
कर्नाटन से मध्यप्रदेश तक कांग्रेस के पास उन नेताओं का अकाल पड़ा हुआ है जो मतदाता को कांग्रेस के चुनाव निशान के प्रति भरोसा दे सकें। कांग्रेस के प्रादेशिक नेताओं के मध्य हर राज्य में इनती तनातनी है कि विवादों को सुलझाने की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम कांग्रेस के डूबने का एक कारण बन सकता है। अनुशासन कांग्रेस की परिभाषा से कोसों दूर है और स्वार्थ की राजनीति और परिवार का पोषण करना प्रत्येक बडे़ नेता की पहली प्राथमिकता बन चुका है। यही कारण है नार्थ-ईस्ट से लेकर उन सभी नौ राज्यों में जहां 2024 के पहले चुनाव होने हैं, कांग्रेस स्वयं अस्तित्वहीन हो गयी है। कांग्रेस का हाई कमान हजारों किमी यात्रा के बाद अपने चेहरे का नया लुक आम व्यक्ति के सामान एक फिल्म अभिनेता की तरह  प्रस्तुत कर रहा है। वास्तविकता यह है कि पूरे देश को अब कांग्रेस को किसी भी लुक से कोई फर्क पड़ता नहीं दिखाई पड़ता है। समर्पित कार्यकर्ताओं के अभाव में दिशाहीन कांग्रेस एक ऐसे गर्त में जा रही है, जहां से गुमनामी का वह सफर शुरू होगा जिसे शायद ही कोई देवी-देवता या सिद्ध-सन्यासी उसे वापस ला सकेगा।