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वृंदा मनजीतः 

भोपाल (एडवाइजर): पिछले वर्ष अक्टुबर में दो ऐसे महान पुरुषों की जयंति थी। एक मोहनदास करमचंद गांधी और दूसरे लाल बहादुर शास्त्री। इन दोनों ऐसी शख्सियत थीं कि दोनों एक ही पायदान के कद्दावर नेता थे। हालांकि शारीरिक रूप से दोनों में से कोई भी पहलवान की तरह कद्दावर नहीं थे। वे अपने विचारों से कद्दावर थे, वे अपने कर्मों से कद्दावर थे, वे देश की जनता की परवाह करने और उनका दुःख दूर करने के लिए कद्दावर थे। उनके सकारात्मक विचार और सिद्धांत आज के समय के लिए भी सुसंगत है।

2 अक्टुबर 1879 के दिन गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी राजकोट के नजदीक एक गांव में पले बढ़े थे। 1888 में वे कानून की डिग्री लेने के लिए पत्नी और पुत्र को छोड़कर लंदन गए। वर्ष 1893 में वे वकालत करने दक्षिण अफ्रिका गए तब उन्होंने देखा कि वहां के लोगों के मन में भारतियों के प्रति पूर्वग्रह है। गांधी ने इसका विरोध करना शुरु किया। इस तरह, अहिंसक सत्य के आधार पर द्रढतापूर्वक अपना मत रखा और लाखों लोगों के लिए प्रेरणादायी हीरो बन गए। उनके व्यक्तित्व में तीन मुख्य गुण जो गांधीजी को हीरो की हैसियत से व्याख्यायित करते हैं – उनका मजबूत नेतृत्व, सादगी और बहादुरी।

मजबूत नेतृत्व

नेतृत्व की बात करें तो यह गांधीजी के पराक्रम करने के गुणों में से एक था। वे मानते थे कि जब भारत के गांव समृद्ध हो जाएंगे तब देश की प्रगति निश्चित है। उन्होंने गांव के लोगोंको चरखा चलाना सिखाया। उसके द्वारा उन्होंने गांव वालों को कपड़े की बुनाई करना सिखाया। चरखा चलाने और हाथों से कपड़ा बनवाने के पीछे गांधीजी का उद्देश्य गांव के लोगों को रोजगारी देना ही था।

हम सभी देखते आए हैं कि अधिकतर गांधीजी की तसवीर में वे चरखा चलाते हुए ही दिखाई पड़ते हैं। यहां यह बताना भी रसप्रद होगा कि हमारे देश की मुलाकात पर आने वाले विदेशी महानुभाव भी साबरमती आश्रम में जाकर चरखा चलाते हैं और यह एक आंतरराष्ट्रीय समाचार बन जाता है।

गांधीजी मानवों के बीच के उंचनीच के भेदभाव दूर करना चाहते थे। उन्होंने अस्पृश्यों के विरुद्ध भेदभाव के मुद्दे को उठाया और उसे हटाने के लिए अथक प्रयत्न किए। वे जाति व्यवस्था में उंचनीच को खत्म करना चाहते थे।

उनके दूसरे उच्चतम गुण की बात करें तो वे सादगी में मानने वाले थे। वे हमेशा हाथों से बिना हुआ कपड़ा ही पहनते थे। यहां एक छोटासा प्रसंग याद आता है। एक बार ज्योर्ज पंचम ने गांधीजी को बकिंगहाम पैलेस में आमंत्रित किया था। वे जब वहां से निकले तब पत्रकारों ने उनसे पूछा, ‘मी. गांधी, आपको नहीं लगता कि किंग को मिलने के समय आपको उपयुक्त कपड़े पहनने चाहिए थे?’ तब गांधीजी ने शरारती हास्य के साथ जवाब दिया था कि ‘आप सब मेरे कपड़ों की चिंता मत कीजिए, आपके राजा ने हमारे दोंनों के मिलाकर पर्याप्त कपड़े पहने थे।’ वे शाकाहारी थे। वे सादा भोजन करते थे और कई दिनों तक उपवास भी करते थे। वे कहते थे कि, ‘मैं औसत से कम क्षमता वाले औसत आदमी से अधिक बड़ा होने का दावा नहीं करता।’

जब स्वदेशी आंदोलन शुरु हुआ और लोग विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने लगे थे तब गांधीजी ने देखा कि उन लोगों के पास विदेशी के अलावा और कोई कपड़ा नहीं था। उन्होंने जब उन लोगों से पूछा तो लोगों ने जवाब दिया कि खादी बहुत महंगी है जिसे खरीदने की उनमें हैसियत नहीं है। यह सुनकर संवेदनशील गांधीजी ने निर्णय लिया था कि वे अब केवल धोती ही पहनेंगे।

बहादुरी या साहस उनका महत्वपूर्ण गुण था। उन्होंने नमक के लिए दांडी मार्च किया था। अंग्रेजों के विरोध में यह प्रथम कार्य था और इस तरह आज़ादी के आंदोलन की शुरुआत हो गई थी। अंग्रेजों के ज़ुल्मी शासन से भारत के लोगों को आज़ाद कराने का उन्होंने प्रण लिया था और वह भी अहिंसा से।

महिला सशक्तिकरण और गांधीजी

सशक्तिकरण शब्द आज के समय में फैशनेबल बन चूका है। इसका अर्थ देखें तो सत्ता और सत्ता का विकेन्द्रीकरण। सशक्तिकरण का हेतु निर्णय लेने की प्रक्रिया में वंचित लोगों की भागीदारी प्राप्त करना ही होता है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं बेजुबानों की आवाज़ को दुनिया के सामने लाना। आम तौर पर ऐसी मान्यता चलती आ रही है कि सरकार को ही कुछ कदम उठाकर कुछ कल्याणकारी योजनाएं शुरु करनी चाहिए जिनके चलते वंचित समाज और खास करके महिलाओं को सशक्त बनाया जा सके। परंतु गांधीजी ने इसका अर्थ ही बदल दिया, उन्होंने वंचित समाज और महिलाओं को सशक्त करने के लिए अनेक प्रयास किए।

महिला सशक्तिकरण की व्याख्या ऐसी की जा सकती है कि महिलाओं को अपने विकास के लिए समान दर्जा प्राप्त हो। पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्री को विकास करने का मौका और स्वतंत्रता दें। गांधीजी का वो अवतरण दिल को छूने वाला है, ‘मन एक अशांत पक्षी है, वह जितना चाहे अधिक प्राप्त करता है फिर भी वह असंतुष्ट रहता है। हम हमारे कार्यों में जितने व्यस्त रहेंगे उतनी ही सक्रियता से कार्य कर पाएंगे।’

महिला सशक्तिकरण के लिए गांधी का मानना ​​था कि सशक्तिकरण का लक्ष्य तीन गुना क्रांति पर आधारित है। पहला है महिलाओं सहित सभी के ह्रदय को बदलना, उनके जीवन को बदलना और सामाजिक संरचना को बदलना। मुद्दा यह है कि 'मानसिक जाल' से बाहर निकलना अनिवार्य है कि पुरुष और महिला अलग-अलग हैं।

आज हजारों भारतीय गांधीजी के विचारों का अनुसरण करते हुए गांवों में जमीनी स्तर पर बहुत काम कर रहे हैं और बहुत कुछ किया जाना बाकी है। ग्रामीण कार्यकर्ता ग्रामीणों के साथ रहते हैं और काम करते हैं, न केवल सलाहकार या तकनीकी सहायक के रूप में बल्कि परिवार, जाति, वर्ग, धर्म और लिंग के विभाजन से उपर उठकर ग्रामीणों के बीच आत्मनिर्भरता और सांप्रदायिक जिम्मेदारी की भावना को बढ़ावा देने के लिए भी।

गांधीजी का स्पष्ट मानना ​​था कि सामुदायिक स्तर पर सामूहिक निर्णय लेने में ग्रामीणों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए काम करना आवश्यक है। साथ ही, यदि विशेष रूप से महिलाएं एक साथ आएं, एक मंच प्राप्त करें और एक-दूसरे को प्रोत्साहित करें, तो उन्हें अपनी क्षमताओं और सामूहिक शक्ति पर विश्वास हो सकता है। महिलाओं में एक अलग तरह का आत्मविश्वास पैदा होगा अगर वे ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम सभा या पंचायत की बैठकों में अपनी बात रख सकें और उनकी बातों का सम्मान किया जा सकें।

महिलाओं के सर्वांगीण सशक्तिकरण का गांधीजी का दृष्टिकोण था कि वे आत्मनिर्भर बनें और आर्थिक क्षेत्र में प्रगति करें, उनमें निर्णय लेने की शक्ति विकसित हों और हर क्षेत्र में पूरा सहयोग दें। वे ट्रस्टीशिप के माध्यम से समाज के कल्याण के लिए भी कार्य कर सकते हैं। साथ ही उन्हें राजनीति में समान भागीदारी स्वीकार करनी चाहिए और कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए। ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण को किसी भी तरह से थोपा नहीं जा सकता है। उसके लिए हमें महिलाओं की समस्याओं को जानना चाहिए, उनके विचारों को जानना चाहिए, उनके सशक्तिकरण के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसके बारे में संवाद करना चाहिए, उनकी रुचियों को जानना चाहिए और आगे काम करना चाहिए। तभी वे स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकेंगीं।

इसे दूसरे तरीके से कहें तो यह कहा जा सकता है कि महिलाएं अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बीच बारीक रेखा को पहचान रही हैं और इसके बारे में जागरूकता विकसित कर रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में कुछ महिलाएं हो सकती हैं, जिनके पास नेतृत्व कौशल है और वे इन कुशलताओं के आधार पर अन्य महिलाओं को प्रोत्साहित करने का काम कर सकती हैं।

गांधीजी पर महिलाओं का प्रभाव

गांधी की माता का नाम पुतलीबाई और उनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा था। इन दोनों महिलाओं के व्यक्तित्व ने गांधीजी के मन पर गहरी छाप छोड़ी। वह कहा करते थे, 'नारी मानवता के लिए ईश्वर की सबसे बड़ी देन है। एक महिला में सृजन करने के साथ साथ नष्ट करने की शक्ति भी होती है।'' हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है यह कहावत चरितार्थ इस तरह हो सकती है कि वे न केवल अपनी मां और पत्नी से प्रभावित थे बल्कि उनकी मां ने उनमें संतत्व की उत्कृष्टता ने छाप छोड़ी। पुतलीबाई का नियम था कि वे बिना प्रार्थना किए अन्न का एक दाना मुंह में नहीं डालतीं। उन्होंने कभी बीमारी में आराम नहीं किया। जब गांधी इंग्लैंड गए, तो उनकी मां ने उनसे वादा किया कि वे शराब और मांस को हाथ नहीं लगाएंगे और महिलाओं से इज्जत से बातचीत करेंगें।

13 साल की उम्र में गांधी ने कस्तूरबा से शादी कर ली। गांधीजी ने पति के रूप में अपनी पत्नी पर कभी प्रभुत्व नहीं दिखाया। बाद में कस्तूरबा उनके हर काम में सक्रिय भागीदार और समर्थक बनीं। कस्तूरबा स्वतंत्र और उग्र स्वभाव की धनी थीं।

गांधीजी को भारतीय महिला आंदोलन का जनक माना जाता है। जब गांधीजी ने राजनीति में प्रवेश किया, तब भारतीय महिलाएँ पर्दे में, घूंघट या बुर्का में रहती थीं। दहलीज पार करके वह अपनी दहलीज से बाहर नहीं जा सकती थीं।

गांधी ने चमत्कार किया। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक उस समय की सभी महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने का साहस दिखाया। गांधीजी के नेतृत्व में अनेक महिलाओं ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की अपेक्षा जेल जाना भी स्वीकार किया।

गांधीजी को भारतीय समाज की बेटों के लिए वरीयता और बेटियों की सामान्य उपेक्षा पसंद नहीं थी। दरअसल, ज्यादातर मामलों में बेटी को पैदा ही नहीं होने दिया जाता। अगर पैदा हुईं तो उसका अस्तित्व सुनिश्चित नहीं था। अगर यह किसी तरह बच जातीं, तो इसे उपेक्षित कर दिया जाता था। उसे बेटे जैसा सम्मान और दर्जा नहीं मिलता था।

उस समय भारत में लड़कों के लिए मजबूत वरीयता के कारण, लगभग चार मिलियन महिलाओं ने अपने जीवन को जोखिम में डाला था और हर साल अवैध गर्भपात किया था। इस प्रक्रिया में कई गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हो गई, लेकिन उनकी मृत्यु की सूचना उनके परिवार के सदस्यों या उन लोगों द्वारा नहीं दी गई, जिन्होंने इन लिंग-चयनात्मक गर्भपातों को किया था।

गांधीजी लैंगिक भेदभाव के पूरी तरह खिलाफ थे। उनका मानना ​​था कि महिला एक महान जीव है जैसे कि एक पुरुष। अगर वह प्रहार करने में कमजोर है, तो वह पीड़ा सहने में मजबूत है। महिलाओं का वर्णन करते हुए गांधी ने कहा, "नारी त्याग और अहिंसा का अवतार है।"

गांधीजी राष्ट्रपिता के रूप में करोड़ों भारतियों के दिलों में राज करते हैं। उन्होंने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बल्कि भारतियों के राष्ट्रीय चरित्र और जीवन को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब भारतीय समाज का ताना-बाना चरमरा रहा था तब उन्होंने राष्ट्र को एकजुट करने का अत्यंत कठिन कार्य पूरा किया। इस प्रकार, एक राष्ट्रीय नेता के रूप में, एक मानवतावादी के रूप में, एक दूरदर्शी के रूप में, एक सामाजिक और राजनीतिक सुधारक के रूप में और सबसे महत्वपूर्ण रूप से एक आध्यात्मिक नेता के रूप में गांधी का उदय एक नए भारत को अपने ऐतिहासिक अतीत की जड़ों के द्वारा मजबूती से आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साथ ही यह आधुनिकता की प्रगतिशील गतिविधियों का स्वागत करता है। गांधीजी की मृत्यु के साथ, महिलाओं ने अपना एक प्रमुख चैंपियन खो दिया। यह एक ऐसा समय था जब महिलाओं की उन्नति, देश के विकास और शांति की संस्कृति की उपलब्धि के बीच संबंध अस्पष्ट था। तो आइए, हम महिलाओं के उत्थान के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में उनके सिद्धांतों को पुनःस्थापित करें।

लाल बहादुर शास्त्री

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर हुआ था। उनके पिता एक प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक थे। इसलिए सब उन्हें 'मुंशीजी' कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली। लाल बहादुर की माता का नाम 'रामदुलारी' था। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण बालक लालबहादुर को प्यार से ‘नन्हे’ के नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने कम उम्र में ही अपने पिता का साया खो दिया था। प्राथमिक शिक्षा उन्होंने अपने ननिहाल में रहकर ही प्राप्त की। बाद की शिक्षा हरिश्चंद्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त करने पर प्रबुद्ध बालक ने जन्म से ही जातिगत शब्द श्रीवास्तव को हटाकर अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया। इसके बाद 'शास्त्री' शब्द 'लाल बहादुर' के नाम का पर्याय बन गया।

भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन के कार्यकर्ता लाल बहादुर 1921 में थोड़े समय के लिए जेल गए। अपनी रिहाई के बाद उन्होंने काशी विद्यापीठ (वर्तमान महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ), एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय में अध्ययन किया, और स्नातकोत्तर ‘शास्त्री’ (शास्त्रों के विद्वान) की उपाधि अर्जित की। स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद वे गांधीजी के अनुयायी के रूप में राजनीति में लौटे, कई बार जेल गए और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी में प्रभावशाली पदों पर रहे। 1937 और 1946 में, शास्त्री प्रांतीय विधानमंडल के लिए चुने गए।

वर्ष 1928 में उनका विवाह गणेश प्रसाद की पुत्री 'ललिता' से हुआ। उनके छह बच्चों में हरिकृष्णा, अनिल, सुनील और अशोक शामिल हैं; और बेटियाँ कुसुम और सुमन। उनके चार पुत्रों में से दो अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री सक्रिय राजनीति में योगदान देते हैं।

शास्त्रीजी धोती-कूर्ता और सिर पर टोपी पहने, जय जवान, जय किसान का नारा लगाते हुए, हाथ हवा में लहराते हुए, किसानों के बीच गाँव-गाँव जाते। यह उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू था। यह महापुरुष भले ही कद में छोटे थे, लेकिन भारतीय इतिहास में इनका कद बहुत ऊंचा है। जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद, शास्त्री ने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला। उनका कार्यकाल राजनीतिक उत्साह और तीव्र गतिविधि की अवधि से भरा था। जब पाकिस्तान और चीन की नज़र भारतीय सीमाओं पर थी तो देश को कई तरह की आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। लेकिन शास्त्रीजी ने हर मुश्किल को बड़ी आसानी से हल कर दिया। उन्होंने "जय जवान, जय किसान" के नारे के साथ देश को आगे बढ़ाया, जिन्होंने किसानों को रोटी कमाने वाला माना और देश के सीमा रक्षकों के प्रति अपने असीम प्रेम से हर समस्या का समाधान किया।

1965 में, जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने, तो पाकिस्तान सरकार ने भारत से कश्मीर घाटी को छीनने की योजना बनाई। लेकिन शास्त्रीजी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए पंजाब के रास्ते लाहौर में प्रवेश किया और पाकिस्तान को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस कृत्य के कारण विश्व स्तर पर पाकिस्तान की व्यापक निंदा हुई। अपनी लाज बचाने के लिए पाकिस्तानी शासक ने तत्कालीन सोवियत संघ से संपर्क किया, जिसके निमंत्रण पर शास्त्रीजी पाकिस्तान के साथ शांति समझौता करने के लिए 1966 में ताश्कंद गए।

ताश्कंद समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच 11 जनवरी, 1966 को हस्ताक्षरित एक शांति समझौता था। इस समझौते के अनुसार, यह निर्णय लिया गया कि भारत और पाकिस्तान अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से हल करेंगे। भारतीय प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तानी प्रधान मंत्री अयूब खान के बीच लंबी बातचीत के बाद 11 जनवरी, 1966 को ताश्कंद, रूस में समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे।

ताश्कंद समझौते के बाद 11 जनवरी 1966 को ताश्कंद में दिल का दौरा पड़ने से शास्त्री जी का निधन हो गया। हालांकि अभी तक उनकी मौत को लेकर कोई आधिकारिक रिपोर्ट सामने नहीं आई है। उनके परिजन समय-समय पर उनकी मौत पर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि इतने काबिल नेता की मौत की वजह आज तक साफ नहीं हो पाई है.

शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए पूरे भारत में प्यार से याद किया जाता है। उन्हें वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

शास्त्रीजी के पुत्र श्री सुनील शास्त्री ने 'लाल बहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी' पुस्तक में एक घटना का उल्लेख किया है कि एक बार शास्त्रीजी की अलमारी की सफाई की गई और उसमें से कई फटे-पुराने वस्त्र उतार दिए गए। लेकिन शास्त्रीजी ने चोगा वापस मांगा और कहा, 'अब नवंबर आएगा, सर्दी आएगी, तो यह सब काम आएगा। मैं कोट पहन लूँगा।' शास्त्री जी को खादी का इतना शौक था कि उन्होंने एक पुराना पहना हुआ लहंगा सहेजते हुए कहा, 'ये सब खादी के कपड़े हैं। इसे बनाने में बनाने वाले ने काफी मेहनत की है. इसका प्रत्येक तानाबाना काम में आना चाहिए। इस किताब के लेखक और शास्त्री जी के बेटे ने लिखा है कि 'शास्त्री जी की सादगी और मितव्ययिता ऐसी थी कि एक बार उन्होंने अपना फटा हुआ चोगा अपनी पत्नी को देते हुए कहा, 'इसमें से कुछ रुमाल बना दो'। इस सादगी और मितव्ययिता की कल्पना वर्तमान युग के किसी भी राजनेता द्वारा नहीं की जा सकती है।' किताब में आगे लिखा है, 'यह जानना बहुत मुश्किल था कि वह क्या सोच रहे थे, क्योंकि उन्होंने कभी भी अनावश्यक रूप से अपना मुंह नहीं खोला। उनके विशेष गुणों में से एक वह आनंद था जो उन्होंने स्वयं कष्ट सहते हुए दूसरों को सुखी बनाने में अनुभव किया था, जो उनके चेहरे से झलक रहा था और वह प्रसन्नता अवर्णनीय थी।'

मुझे उम्मीद है कि पाठकों को अक्टूबर में पैदा हुए भारत के इन दो लाड़ले नेताओं के बारे में पढ़ना जरूर पसंद आएगा। हालाँकि, दोनों के बारे में दो पन्नों में लिखना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है। दोनों के बारे में कितनी ही किताबें निकल चुकी हैं; यदि आप प्रत्येक पुस्तक को पढ़ते हैं, तो आप हर बार कुछ नया सीख सकते हैं। मर्यादा के कारण यहाँ थोड़ा ही लिखा है।

आइए हम सब उनकी प्रेरणा से देश की प्रगति में थोड़ा-थोड़ा योगदान दें।