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सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर) :
ग्वालियर राज घराने के वर्तमान में प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर मध्यप्रदेश की राजनीति में कई अफ़वाए जन्म ले रही है। एक ओर बिना किसी आहट के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ बार-बार सिंधिया की कांग्रेस में वापसी को लेकर बयान दे रहें हैं। तो दूसरी ओर राहुल गांधी ने भी अपने बयानों में सिंधिया से एक स्थायी दूरी बनाने की घोषणा कर दी है। वास्तविता यह है कि कांग्रेस की सरकार को गिराकर सिंधिया ने भाजपा को अपने 28 विधायकों का समर्थन देकर पिछले 60 महीनों की सरकार में से 45 महीनें की सरकार भाजपा की बनवा दी। यह बात अलग है कि ग्वालियर राज परिवार के मध्यप्रदेश की राजनीति में परम्परागत रूप से चले आ रहे सम्मान को सिंधिया भाजपा में बचा नहीं पाए। 
जो सिंधिया कांग्रेस में रहकर महाराज से नीचे उतरते नहीं थे। उन्हें भाजपा ने वापस बाजीराव पेशवा के यहां काम करने वाले एक अदना से कर्मचारी महदजी सिंधिया के समतुल्य लाकर खड़ा कर दिया। उल्लेखनीय है कि पेशवा ने इंदौर और ग्वालियर की रियासत क्रमशः होलकर और सिंधिया को सांपी थी। इसके पूर्व वे दोनों ही पेशवा के निजी सेवक के रूप में कार्य करते थे। 
सिंधिया, भाजपा में आते ही महाराज से भाई साहब में परिवर्तित हो गये, और उनके समर्थकों को भी भाजपा के विश्वसनीय नेताओं को दर किनार कर उपचुनाव के माध्यम से पुनः विधानसभा में प्रवेश की अनुमति दी गई। सिंधिया समर्थकों ने संभवतः यह मान लिया कि अब भाजपा जैसे दल की निर्भरता सदैव के लिये उन पर आ टिकी है। कहा तो यह भी जाता है कि जब 15 माह की कांग्रेस की सरकार टूट रही थी, तो इन्हीं सिंधिया समर्थक 28 विधयकों में से 3 या 4 विधायकों ने कमलनाथ से इस दुर्घटना को रोकने के लिये सुपारी ली थी। पिछले दिनों सिंधिया समर्थकों को लेकर भाजपा में एक अंदरूनी कलह का वातावरण है। इन अप्रवासी 28 लोगों को राज्य के 28 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को लगभग 56 परम्परागत नेताओं की बलि देनी होगी, जिसके लिये भाजपा के बहुसंख्य नेता तैयार नहीं है। सिंधिया भी लगातार अपने अस्तित्व को भाजपा में इतनी प्रमुखता के साथ नहीं स्थापित कर पाये है, जितना उन्हें उम्मीद थी।
दूसरी ओर सिंधिया और दिग्विजय सिंह के मध्य राजा और महाराजा की अंहकार वाली राजनीति ने कांग्रेस की दुकान 15 महीनों में समेट दी थी। मध्यप्रदेश की राजनीति को जानने वाले यह मानते है कि कमलनाथ और सिंधिया के मध्य दोनों के ही कांग्रेस में सक्रियाता के पूर्व से ही औद्योगिक अनबन रहती है। 
प्रश्न यह है, कि आने वाले विधानसभा चुनाव में क्या सिंधिया अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को भाजपा में सुरक्षित रख पायेगें। क्या वे अपने समर्थक 28 विधायकों को राजनीति में जीवित रख पायेगें, और क्या वे अपने समर्थक गोविन्द सिंह राजपूत जैसे नेताओं के भ्रष्टाचार को व्यापक संरक्षण दे पायेगें। राजनैतिक रूप से पूछे तो सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं में है। ग्वालियर क्षेत्र में प्रभाव के प्रश्न सिंधिया पर भारी पड़ सकते है, जो भाजपा के लिये लाभकारी होगा। दिग्विजय सिंह चाहे लाख दावें कर ले, सिंधिया की रियासत में उनका असर कभी भी पूर्णकालीक नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि सिंधिया के कांग्रेस में वापस आने की आहट ही कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को बैचेन कर देती है। परिस्थितियों के आकलन के अनुसार सिंधिया स्वयं उस मार्ग पर खड़े है, जहां अस्तिस्व बचाने के लिये उन्हें स्वयं संघर्ष करना है या आगामी निर्वाचनों के दौरान उनका अस्तित्व मध्यप्रदेश की राजनीति से शून्य हो जाना है।