(Advisornews.in)
सुधीर पाण्डे
भोपाल(एडवाइजर):
प्रबंधन की राजनीति अब आम भारतीय मतदाताओं के जीवन का निर्धारण कर रही है। बड़े औद्योगिक घरानों के माध्यम से चलने वाला राजनैतिक तंत्र आम व्यक्ति से अलग हटकर, अब औद्योगिक घरानों के बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जनप्रबंधन के कार्य में संलग्न हो चुका है। ऐसा महसूस होता है कि अब सरकारों में बनने वाली योजनाएं जन आवश्यकताओं पर आधारित न होकर, बड़े औद्योगिक समूहों को लक्ष्य प्राप्त करने का माध्यम बनतें जा रहे है। राजनैतिक दल क्रमशः इन औद्योगिक घरानों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये जनता को भटकाने का माध्यम बनते जा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि भारत की राजनीति में आजादी के पूर्व से ही प्रबंधन की कोई भूमिका नहीं रही हो। दूसरें शब्दों में कहें तो आजादी के आंदोलन को संचालन के लिये, आवश्यक संसाधनों को जोड़ने के लिये, औद्योगिक घरानों की भूमिका स्पष्ट परंतु आम व्यक्ति की जरूरतों और भावनाओं के अनुरूप, औद्योगिक घरानों का एक हिस्सा हुआ करता था। बहुतायत हिस्सा आम व्यक्ति के पक्ष में उसकी जीवन शैली को सुधारने पर आधारित होता था।
आजादी के बाद परिभाषाओं में परिर्वतन हुआ। प्रबंधन की राजनीति में औद्योगिक घरानों की हिस्सेदारी क्रमशः बढ़ती चली गई। समय के साथ पार्टियों को मिलने वाला चंदा और राजनैतिक दलों की निरन्तर गतिविधियों को, सही तरीके से संचालित करने के लिये इन्हीं औद्योगिक घरानों में स्वयं पार्टियों का समर्थक बनना शुरू कर दिया। स्थितियां बदलतें-बदलतें 21 वीं सदी आ गई और परिभाषाएं क्रमाशः आम आदमी की हिस्सेदारी को कम करते करते इस हद तक पहुंच गई कि, आम आदमी की जरूरतें और औद्योगिक घरानों की हिस्सेदारी पर आधारित कर दी गई। कुल मिलाकर भारत औद्योगिक रूप से तो उतना प्रगति नहीं कर पाया, जितना पिछलें चार दशकों के दौरान औद्योगिक घरानों में अपनी ताकत में वृद्धि कर ली।
पिछलें एक दशक से यह दबाव इस कदर बढ़ गया कि वे सभी संस्थान जो आम आदमी की भागीदारी को निर्धारित करते थे। इन्हीं औद्योगिक घरानों को या तो बेच दिये गये या उसमें औद्योगिक घरानों की हिस्सेदारी उन्हें मालिकाना हक देनें की तरह हो गई। परिणाम यह हुआ कि आम आदमी केवल सरकारी बयानों में राहत की खोज करता रहा वास्तविक रूप मं उसे मिला कुछ नहीं। इतना नहीं उसके पास कुल जमा पूंजी को भी बेहतर प्रबंधन तकनीकी माध्यम से उसके पास से निकाल लिया गया, जिससे उसके जीवन जीने का आधार ही समाप्त हो गया। 
भारत जैसे विकासशील देश में आम आदमी की समझ प्रशासन, वित्त, कानून आदि क्षेत्रों में बहुत सिमित है। कई क्षेत्रों की पेचीदगियों को आम आदमी नहीं समझता। बार-बार बदलने वाले बैकिंग और इंशोरेंस नेटवर्क के नियमों में वो उलझ जाता है। इस प्रक्रिया को सुलभ बनाने के स्थान पर पिछले 10 वर्षों के दौरान बार-बार नियम बदल कर उसे उलझाया गया। आम आदमी आज भी इसी उलझन में है कि उसे जिंदगी किस शैली में जीनी है। आम आदमी विकास तो चाहता है पर विकास इतना उलझा हुआ हो कि उसके परम्परागत रहन-सहन और दैनिक क्रियाकलापों में आमून परिवर्तन कर दे उसके समझ से परे है। परंतु प्रबंधन के विशेषज्ञ आम आदमी की इस उलझन को एक अवसर मान रहे हैं और उसके पास सुरक्षित पड़ी हुई पूंजी को बाहर निकलवाने की हर तिकड़म में लगे हैं। यह भी सत्य है ये निकाली गई पूंजी किसी न किसी तरह उन्हीं औद्योगिक घरानों को पहुंचाई जा रही है जो वर्तमान में भारत के भाग्य विधाता है और हमेशा के लिये बनें रहना चाहतें हैं।